शुक्रवार, 19 जून 2020

एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं

58 साल पहले, 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय लिखी गयी और उन्हीं दिनों विभिन्न मंचों से पढ़ी गयी पूज्य पिताजी आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' जी की यह ओजपूर्ण कविता आज फिर से कितनी प्रासंगिक हो गयी है:

एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं
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        (प्रो ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज)

एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं ।
आग उगलती तोपों से हम मुँह न मोड़ने वाले हैं ।।

हम हैं वीर भरत के वंशज, हम में प्रताप का पानी है।
कोटि चवालिश एक-एक हम शेर शिवा अभिमानी हैं ।।

कुँवर सिंह की अमिट निशानी आज हमें ललकार रही है ।
मर्दानी झाँसी की रानी कब से हमें पुकार रही है।।

वृद्ध हिमालय क्रुद्ध कण्ठ से बार-बार हुँकार रहा है ।
क्षुब्ध सिंधु बन काल भुजंगम शत-शत फन फुत्कार रहा है ।।

आज शांति के अग्रदूत का सौम्य वदन अंगार हुआ है ।
भारत का बच्चा-बच्चा तक आज शत्रु हित काल हुआ है।।

सावधान अविवेकी, तेरी नीति न चलने वाली है ।
राम-कृष्ण की भू पर तेरी दाल न गलने वाली है ।।

साभार -- 'हिमालय बोल रहा है' (काव्य संकलन,1963)। संग्राहक -- एस डब्लू सिन्हा (तत्कालीन जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, दुमका)।
प्रकाशक -- जिला जनसम्पर्क विभाग, दुमका।

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