शनिवार, 27 जून 2020

कोई नहीं मंज़िल मेरी (ग़ज़ल)

कोई नहीं मंज़िल मेरी फिर क्यों चला मैं जा रहा
मैं जा रहा हूँ किस दिशा मुझको नहीं कुछ है पता
कैसे नहीं होता परेशाँ क्यों न मैं होता दुखी
अंधा बना कानून जब पापी को है लेता बचा
अपराध करके छूटते हैं रोज अपराधी यहाँ
दे सच बता कानून देता पाप की तू क्या सजा
जाती जहाँ तक भी नज़र फैला हुआ है बस धुआँ
हर सिम्त फैला ज़ह्र है मैं ज़ह्र लूँ कैसे पचा
अवतार अब लेते नहीं भगवान भारत देश में
उत्पात करते दानवों को कौन रोकेगा भला
अब दिल धड़कना बंद है, अब व्यर्थ सांसे चल रहीं
अस्मत लुटी मेरी मग़र कुछ भी नहीं मैं कर सका
कितना विवश था मैं 'अमर' बस चीख ही सुनता रहा
कुछ भी नहीं मैं कर सका तो क्यों जियूँ कोई बता

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