ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
आँधियों में ज़ोर कितना आज़माते हम रहे
ज़िन्दगी तेरे तराने रोज़ गाते हम रहे
फूल की मुस्कान कल थी आज पत्थर भाग्य में
प्यार से पिघला दो पत्थर यह सिखाते हम रहे
झूठ ही युगधर्म है कैसे कहो हम मान लें
सांकरी सच की गली चलकर दिखाते हम रहे
दिन पुराने याद करके खंडहर ग़मगीन था
कैसे करता ग़म गलत उसको रुलाते हम रहे
हाथ की उलझी लकीरों पर करें विश्वास क्यों
जब कभी उजड़ा चमन तो गुल खिलाते हम रहे
छा रहा था फिर नशा या गुफ़्तगू का था असर
सुर्ख़ से गुस्ताख़ लब थे दिल लगाते हम रहे
क्यों नहीं उनपर भरोसा हम 'अमर' फिर से करें
मिल तसव्वुर में उन्हीं से खिलखिलाते हम रहे
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
आँधियों में ज़ोर कितना आज़माते हम रहे
ज़िन्दगी तेरे तराने रोज़ गाते हम रहे
फूल की मुस्कान कल थी आज पत्थर भाग्य में
प्यार से पिघला दो पत्थर यह सिखाते हम रहे
झूठ ही युगधर्म है कैसे कहो हम मान लें
सांकरी सच की गली चलकर दिखाते हम रहे
दिन पुराने याद करके खंडहर ग़मगीन था
कैसे करता ग़म गलत उसको रुलाते हम रहे
हाथ की उलझी लकीरों पर करें विश्वास क्यों
जब कभी उजड़ा चमन तो गुल खिलाते हम रहे
छा रहा था फिर नशा या गुफ़्तगू का था असर
सुर्ख़ से गुस्ताख़ लब थे दिल लगाते हम रहे
क्यों नहीं उनपर भरोसा हम 'अमर' फिर से करें
मिल तसव्वुर में उन्हीं से खिलखिलाते हम रहे