रविवार, 5 जुलाई 2020

आपसे मिलने की ख़ातिर (ग़ज़ल)



आपसे मिलने की ख़ातिर आह हम भरते रहे
क्या हुआ जो ख़्वाब में ही प्यार हम करते रहे

क्या कहेंगे क्या सुनेंगे सोचना मुश्किल हुआ
उलझनों में हम उलझकर रोज ही मरते रहे

सुहबतों ने आपकी हमको  सिखाई है वफ़ा
हम वफ़ा के नाम पर ख़ुद पे सितम करते रहे

बादलों की ओट से चमकीं कभी जब बिजलियाँ
डर पुराना याद कर अंज़ाम से डरते रहे

इश्क़ में हम आपके जबसे हुए पागल हैं जी
ज़ह्र का हर घूंट भी हँस कर पिया करते रहे

जब ये जाना राह उनकी और मेरी  है ज़ुदा
नैन से मोती निरंतर बूँद बन झरते रहे

आपकी बदमाशियों ने गुदगुदाया दिल 'अमर'
छुप-छुपाके प्यार यूँ ही आपसे करते रहे

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