आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ के साहित्य में उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय स्त्री का चित्रण
डॉ अदिति गोविल
स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
सामान्यतः हिन्दी भाषा के क्षेत्रीय कवियों को साहित्यिक संस्कृति के विद्वानों द्वारा अधिक महत्व नहीं दिया जाता। परंतु जैसा कि कहा गया है, किसी भी समय की समाज की गहराई से समझ, उस समाज की मूल भाषा के साहित्य के अध्ययन के बिना संभव नहीं है। यह शोध पत्र संताल परगना के एक क्षेत्रीय परंतु बड़े और महत्वपूर्ण हिन्दी कवि, आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' (1919–1977) की कविताओं में प्रतिफलित स्त्रीवादी विचारों का विश्लेषण विशेष रूप से "स्नेह-दीप"(1958), "उद्गार"(1962) और "अर्पणा"(1961) जैसे काव्य-संग्रहों को आधार बनाकर करने का प्रयास करता है।
अतः यह शोध आलेख उनके साहित्य में उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय स्त्री विमर्श को रेखांकित और मूल्यांकन करने का प्रयास करता है, जिसमें उनकी पृष्ठभूमि, स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरणा, गांधीवादी दर्शन, और शैक्षिक योगदान को आधार बनाया गया है। इसके साथ ही, स्त्री विमर्श के ऐतिहासिक संदर्भ और आधुनिक स्त्री आंदोलन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए पंकज के काव्य की प्रासंगिकता को समझने का प्रयास किया जाएगा।
प्रस्तावना:
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' हिन्दी साहित्य के उन मनीषियों में से हैं जिन्होंने स्वाधीनता के बाद के भारत में साहित्यिक और सामाजिक चेतना को नवीन दिशा प्रदान की। संताल परगना (झारखण्ड) जैसे उपेक्षित क्षेत्र में जन्मे और पले-बढ़े पंकज ने अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल राष्ट्रीय भावना को बल दिया, बल्कि सामाजिक समानता, मानवीय मूल्य और स्त्री विमर्श जैसे प्रगतिशील मुद्दों को भी उजागर किया। उनका जीवन स्वाधीनता संग्राम, गांधीवादी मूल्यों और साहित्यिक साधना का अनुपम संगम है।
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' हिन्दी के उन विरले साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रारंभिक वर्षों में न केवल राष्ट्र के नव निर्माण की प्राथमिकताओं को अपनी कविताओं में स्थान दिया, बल्कि मानवीय मूल्यों को भी स्वर प्रदान किया। उनका समूचा साहित्य एक गहन मानवीय और संवेदनशील चेतना से अनुप्राणित है, जो न केवल तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया करता है, बल्कि एक आदर्श समाज की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है। उनकी कविताओं में स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श और मानवता का स्वर एक साथ गूँजता है।
आचार्य 'पंकज' की जीवन यात्रा और वैचारिक पृष्ठभूमि:
जन्म से ही एक समृद्ध घाटवाल (जमींदार) परिवार से संबंध रखने वाले आचार्य 'पंकज' का झुकाव विद्यार्थी जीवन से ही राष्ट्रवादी विचारधारा की ओर हुआ। अपनी प्राथमिक शिक्षा गांव से ही प्राप्त करने के बाद बालक ज्योतींद्र प्रसाद देवघर के महामना पंडित शिवराम झा द्वारा नवस्थापित हिन्दी विद्यापीठ, देवघर के पहले बैच के विद्यार्थी के रूप में देवघर चले गए। हिन्दी विद्यापीठ देवघर से 1938 में "साहित्यालंकार" की उपाधि हासिल करने के तुरंत बाद, मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ही, वे वहीं आचार्य पद पर नियुक्त हुए। इस तरह हिन्दी विद्यापीठ देवघर में उन्होंने अपने स्वनामधन्य गुरुओं पंडित जनार्दन मिश्र 'परमेश', पंडित बुद्धिनाथ झा 'कैरव', डॉ लक्ष्मी नारायण सिंह 'सुधांशु' और डॉ जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' जैसे विद्वानों के साथ पहले छात्र और अब सहकर्मी आचार्य के रूप में सान्निध्य का अवसर प्राप्त किया और राष्ट्रवादी साहित्य की रचना की। भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। उनका पैतृक आवास "खैरबनी" क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना। इन अनुभवों ने उनकी कविताओं में जनचेतना और संघर्ष का स्वर भर दिया।
1954 में हिन्दी विद्यापीठ से त्यागपत्र देकर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' संताल परगना महाविद्यालय, दुमका में प्रोफेसर नियुक्त किए गए। 1954 में संताल परगना महाविद्यालय दुमका में संस्थापक शिक्षक और हिन्दी विभाग के अध्यक्ष के रूप में शुरू हुई यह यात्रा आजीवन चलती रही। 1977 सितंबर में अपनी मृत्यु पर्यन्त वे संताल परगना महाविद्यालय दुमका में संस्थापक शिक्षक सह हिन्दी में के रूप में कार्यरत रहे।
1954 तक आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' की विद्वता और उनका साहित्यिक कद बहुत बड़ा हो चुका था और वे तत्कालीन बिहार के उद्भट विद्वान प्राध्यापक के रूप में अपनी सर्वमान्य पहचान बना चुके थे। संभवतः इसीलिए उनके आभामंडल से प्रभावित दुमका के साहित्यकारों द्वारा 1955 में दुमका में प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' के सभापतित्व में "पंकज-गोष्ठी" की स्थापना की गई, जो बाद में एक सशक्त साहित्यिक आंदोलन बन गया। 'पंकज-गोष्ठी' ने न केवल क्षेत्रीय लेखन को प्रोत्साहन दिया, बल्कि सामाजिक सरोकारों से जुड़े साहित्य को भी मंच दिया।
स्त्री विमर्श - एक परिचय:
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' की कविताओं में स्त्री विमर्श का परीक्षण करने के पहले हमें आधुनिक भारत में विकसित हो रही स्त्री विमर्श की अवधारणा का एतिहासिक संदर्भ भी समझना चाहिए।
स्त्री विमर्श वह विचारधारा और साहित्यिक प्रवृत्ति है जो स्त्री की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत स्थिति को केंद्र में रखकर उसके शोषण, दमन और मुक्ति के प्रश्नों को उठाती है। यह केवल स्त्री-पुरुष समानता की मांग नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक संरचनाओं के खिलाफ एक वैचारिक संघर्ष है। भारत में स्त्री विमर्श का विकास ऐतिहासिक और सामाजिक परिवर्तनों के साथ जुड़ा है, जिसमें प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक कई चरण शामिल हैं। पंकज का काव्य इस विमर्श को उत्तर-औपनिवेशिक संदर्भ में प्रस्तुत करता है, जहां स्वाधीनता के बाद की सामाजिक पुनर्रचना में स्त्री की भूमिका को नया आयाम मिला।
भारतीय संदर्भ स्त्री विमर्श का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:
स्त्री विमर्श का ऐतिहासिक विकास भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों का प्रतिबिंब है। इसे निम्न चरणों में समझा जा सकता है:
1. प्राचीन और मध्यकालीन काल: वैदिक काल में स्त्रियों को शिक्षा और धार्मिक अधिकार प्राप्त थे, जैसा कि गार्गी और मैत्रेयी के उदाहरणों से स्पष्ट है। परंतु, उत्तर वैदिक काल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उनकी स्वतंत्रता को सीमित करना शुरू किया। मध्यकाल: मध्यकाल में सामंती और मुगल शासन के प्रभाव से पर्दा प्रथा, सती प्रथा, और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं प्रचलित हुईं। स्त्री को पुरुष की संपत्ति और सम्मान का प्रतीक मान लिया गया, जिससे उसकी स्थिति दयनीय हो गई।
2. औपनिवेशिक काल और सुधार आंदोलन का प्रभाव:
18वीं-19वीं सदी में ब्रिटिश शासन ने पितृसत्तात्मक संरचनाओं को और सुदृढ़ किया, परंतु औपनिवेशिक शिक्षा और मिशनरी गतिविधियों ने सुधार के नए विचार प्रस्तुत किए। सुधारवादी प्रयास: राजा राममोहन राय ने सती प्रथा (1829 में प्रतिबंध), ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह (1856 में अधिनियम), और ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा के लिए आंदोलन चलाए। इन प्रयासों ने स्त्री चेतना को जागृत किया।स्वाधीनता संग्राम: गांधीवादी आंदोलनों, जैसे असहयोग आंदोलन (1920-22) और नमक सत्याग्रह (1930), में सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, और कस्तूरबा गांधी जैसी महिलाओं की भागीदारी ने स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन में स्थान दिलाया।
3.उत्तर-औपनिवेशिक काल संवैधानिक अधिकार:
1947 में स्वाधीनता के बाद 1950 में लागू संविधान ने अनुच्छेद 14, 15, और 16 के तहत स्त्रियों को समानता का अधिकार दिया। 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम और 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने कानूनी सुधारों को बढ़ावा दिया।सामाजिक चुनौतियां: ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, और सामाजिक रूढ़ियां बाधक बनी रहीं। साहित्य ने इस दौर में स्त्री की बदलती भूमिका को प्रतिबिंबित करने का कार्य किया।
आधुनिक स्त्री आंदोलन का विस्तृत विवरण: आधुनिक स्त्री आंदोलन भारत में उत्तर-औपनिवेशिक काल से शुरू होकर 20 वीं सदी के मध्य से वर्तमान तक विकसित हुआ। यह औपनिवेशिक सुधारों और स्वाधीनता संग्राम की नींव पर खड़ा है, परंतु इसका स्वरूप व्यापक और संगठित है। इसे तीन चरणों में समझा जा सकता है:
1. प्रथम चरण (1950-1970): प्रारंभिक जागरूकता और कानूनी सुधार: संविधान और हिंदू कोड बिल जैसे कानूनों ने स्त्रियों को अधिकार दिए, परंतु ये शहरी और उच्च वर्ग तक सीमित रहे। ग्रामीण क्षेत्रों में दहेज, बाल विवाह, और अशिक्षा जैसी समस्याएं बनी रहीं।संगठन: ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस जैसे संगठनों ने शिक्षा और जागरूकता पर जोर दिया। यह दौर प्रारंभिक चेतना का था, जिसमें पंकज जैसे साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में स्त्री की स्वतंत्रता को स्वर दिया।
2. द्वितीय चरण (1970-1990):
संगठित संघर्ष और महत्वपूर्ण घटनाएं: 1974 की "टू वर्ड्स इक्वैलिटी" रिपोर्ट ने स्त्रियों की स्थिति को उजागर किया। दहेज विरोधी आंदोलन, मथुरा बलात्कार कांड (1979), और घरेलू हिंसा के खिलाफ आंदोलन इस दौर की विशेषताएं थीं।स्वायत्त संगठन: सौम्या और मंथन जैसे संगठनों ने पितृसत्तात्मक समाज के खिलाफ संघर्ष तेज किया। साहित्य में प्रभा खेतान और कमला दास जैसे लेखकों ने स्त्री मुद्दों को मुखर किया।
3. तृतीय चरण (1990-वर्तमान): विविधता और समावेशिता के नए आयाम:
विशाखा दिशानिर्देश (1997) ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को परिभाषित किया। निर्भया आंदोलन (2012) और "मी टू" आंदोलन ने हिंसा के खिलाफ व्यापक जागरूकता फैलाई।
पंकज के काव्य में समावेशिता:
दलित, आदिवासी, और अल्पसंख्यक स्त्रियों के मुद्दों को शामिल किया गया। यह दौर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लैंगिक पहचान पर भी केंद्रित है।
विशेषताएं:
समानता से स्वायत्तता की ओर बढ़ाव।
सामाजिक और व्यक्तिगत मुक्ति पर जोर।
साहित्य और कला के माध्यम से स्त्री चेतना का प्रसार।
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' के काव्य में स्त्री विमर्श, भावबोध और प्रतीकात्मकता:
आचार्य 'पंकज' की स्त्री-कविताएं 'कल्पना' या 'प्रणय' की सीमाओं से आगे जाकर स्त्री की स्वतंत्र सत्ता, संवेदना और संघर्षशीलता को चित्रित करती हैं। वे स्त्री को एक जीवंत, गतिशील और प्रश्नाकुल सत्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
उन्होंने कई काव्य-संग्रह लिखे, जिनमें एक ओर 'कौन', 'काली से' और 'सरिता' जैसी कविताएं नव-प्रेमानंदवादी प्रभाव को दर्शाती हैं—प्रकृति प्रेम के साथ रोमानी और मानवतावादी संवेदना लिए हुए—वहीं दूसरी ओर 'ग्रामिणा' और 'दलित कुसुम' जैसी कविताएं स्त्रियों की समस्याओं और समाज के दृष्टिकोणों को उजागर करती हैं, जो इस शोध पत्र की केंद्रीय चर्चा में हैं। किसी एक कवि की कविताओं तक विश्लेषण को सीमित करना शायद दायरे को संकुचित करना लगे, फिर भी यह हिन्दी क्षेत्र के हाशिये पर स्थित कवियों को प्रभावित करने वाली विचारधाराओं और प्रक्रियाओं की ऐतिहासिक समझ के लिए उपयोगी श्रेणी बनता है।
'ग्रामिणा' कविता में एक ग्रामीण स्त्री की पारंपरिक छवि प्रस्तुत की गई है। यह प्रस्तुति न केवल गांधीजी की विचारधारा से प्रेरित प्रतीत होती है, बल्कि राजा रवि वर्मा की चित्रकला से भी प्रभावित है, जिनकी पेंटिंग्स में स्त्रियों को प्राचीन आदर्श स्वरूप में दर्शाया गया है। इस कविता की स्त्री सुंदर, सरल, स्नेही, पारंपरिक पोशाक (साड़ी) में सज्जित, मृदुभाषिणी एवं घरेलू स्त्री के रूप में चित्रित है।
गांधीजी ने स्त्रियों को प्रेरित करने के लिए प्राचीन हिंदू नायिकाओं—सीता, दमयंती, द्रौपदी—का उदाहरण प्रस्तुत किया जो 'शुद्ध' हृदय और शरीर की प्रतीक थीं, और जिन्होंने अपने नैतिक साहस और पुण्य के लिए सम्मान पाया। परंपरागत आदर्श स्त्रीत्व के इस विचार को, जैसा कि पार्थ चटर्जी कहते हैं, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'परंपरा' का प्रतीक बनाया गया था। इस प्रकार की स्त्रियां ‘आदर्श स्त्री’ के रूप में स्थापित की गईं। और क्रांतिकारी स्त्रियों को सामान्य स्त्रीत्व का प्रतिनिधि न मानते हुए अपवाद स्वरूप दिखाया गया। इस धारणा ने आम जनता पर गहरा प्रभाव डाला।
इस आदर्श स्त्री की अवधारणा ने स्त्रियों को 'संस्कृति की रक्षक' के रूप में चित्रित किया। राष्ट्र-राज्य की संकल्पना स्त्री के साथ जोड़ दी गई, और आदर्श स्त्री को घरेलू क्षेत्र तक सीमित कर दिया गया। इस 'पवित्र' भारतीय स्त्री की छवि को पश्चिमी स्त्री की 'भौतिकवादी' और 'स्वच्छंद' छवि के विरोध में स्थापित किया गया। रोमिला थापर के अनुसार, अठारहवीं सदी से पहले भारत ने स्वयं को 'आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ' के रूप में प्रस्तुत नहीं किया था।
'ग्रामिणा' एक ऐसी स्त्री है जो आधुनिकता से अछूती है और विश्व में आ रहे परिवर्तनों से अनजान है। गांधीजी की तकनीक-विरोधी और आधुनिकता-विरोधी सोच को यह स्त्री मूर्त रूप देती है। औद्योगिकीकरण और नगरीकरण के चलते परिवारों के विघटन और उपभोक्तावाद की स्थिति ने साहित्यकारों को भी प्रतिक्रिया देने को प्रेरित किया। इसीलिए हम देखते हैं कि कविता की स्त्री 'शुद्ध' भोजन करती है, स्वास्थ्यवर्धक जीवन जीती है, और अपनी युवावस्था में भी यौनिक रूप से नियंत्रित है।
यह छवि इस सामाजिक धारणा को पुष्ट करती है कि एक यौनिक रूप से निष्क्रिय स्त्री ही आदर्श स्त्रीत्व का प्रतिमान है। गांधीजी ने भी स्त्री नेताओं की छवि को पवित्र, संयमी और आत्मनियंत्रित (लगभग 'निर्लिप्त') के रूप में प्रस्तुत किया था।
1950 और 60 के दशक के हिन्दी सिनेमा में भी हम पाते हैं कि विवाह के माध्यम से स्त्रियों का घरेलूकरण सामान्यीकृत हो चुका था। यही आदर्श 'ग्रामिणा' की कविता में भी प्रस्तुत है।
'दलित कुसुम' कविता में एक बाल विधवा की मार्मिक छवि प्रस्तुत की गई है। यह स्त्री अपने पति की मृत्यु से उत्पन्न हुए सामाजिक, धार्मिक और मानसिक बोझ से त्रस्त है, भले ही वह अपने पति को ठीक से जानती तक न हो। शीर्षक स्वयं संकेत करता है कि वह एक 'टूटा हुआ और उत्पीड़ित फूल' है—जो स्त्री को कोमलता और सौंदर्य का प्रतीक मानता है, जिसे एक पुरुष की सुरक्षा में रहना अनिवार्य बताया गया है।
पति की मृत्यु उसके जीवन को एक 'अपवित्र' स्थिति में ढकेल देती है। विवाह के प्रतीक—लाल साड़ी, सिंदूर, चूड़ियाँ—उससे छीन ली जाती हैं, जिससे उसका 'पवित्र' सामाजिक दर्जा समाप्त हो जाता है। वह सामाजिक दृष्टि से 'दलित' बन जाती है, भले ही वह जाति से न हो। यह विधवा की परछाईं तक को अशुद्ध मानने की मानसिकता को उजागर करता है।
उसकी माँ की विलापपूर्ण छवि इस पीड़ा को और गहरा करती है। श्रृंगार जो कभी सौभाग्य का प्रतीक था, अब उस पर बोझ बन जाता है। सौंदर्य अब एक स्वतंत्र सौंदर्यबोध न होकर विवाह से जुड़ा हुआ है—सिर्फ पति के लिए सजना, केवल विवाह के बाद सजना। विवाह टूटने पर यह अधिकार भी छीन लिया जाता है। यह परंपरा न केवल सार्वजनिक बल्कि निजी जीवन को भी नियंत्रित करती है, जिससे स्त्री की स्वतंत्र इच्छा का कोई स्थान नहीं रहता।
धार्मिक ग्रंथों में भी यह व्यवस्था स्थापित रही है—स्त्री तभी शुभ मानी जाती थी जब उसका पति जीवित हो। विधवा होते ही वह सभी धार्मिक और सामाजिक अधिकारों से वंचित कर दी जाती थी। उस पर पति की मृत्यु का दोष तक मढ़ा जाता था। नैंसी फॉक के अनुसार, बाल विवाह के कारण कई स्त्रियां जल्दी विधवा हो जाती थीं, और पुनर्विवाह का विकल्प उन्हें उपलब्ध नहीं होता था।
गांधीजी ने भले ही विधवापन को 'पवित्र' कहा हो, पर यह विचार वास्तविक जीवन की सामाजिक सच्चाइयों को नहीं बदल सका। इस कविता में बालिका विधवा के रूप में स्त्री की एक ऐसी छवि दिखती है जो संथाल परगना जैसे क्षेत्र की सामाजिक हकीकत से जुड़ी है। वहाँ की आदिवासी स्त्रियों में बाल विवाह की परंपरा नहीं रही, अतः यह पात्र संभवतः उच्च जाति की स्त्री है।
बाल विवाह 19वीं शताब्दी से ही सामाजिक सुधारवादियों के निशाने पर रहा है, और 1929 के 'शारदा अधिनियम' के बावजूद यह परंपरा सामाजिक स्वीकार्यता के कारण जीवित रही। स्मृति ग्रंथों में बाल विवाह का समर्थन मिलता है, जबकि वेदों में इसकी अनुपस्थिति है। इस प्रकार, यह परंपरा सामाजिक रीति-रिवाजों और पितृसत्तात्मक मूल्यों से पोषित होती रही।
अंततः, इस कविता में यद्यपि स्त्री को एक पीड़ित के रूप में दिखाया गया है, लेकिन बाल विधवा के भीतर जीवन को फिर से पकड़ने की इच्छा और स्वत्व की खोज की आकांक्षा दिखती है। यह संकेत देती है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का नारीवाद अब भी उन समस्याओं से जूझ रहा था जो पहले की पीढ़ियों ने पूरी तरह हल नहीं की थीं। आर्थिक और सामाजिक ढांचे में गहरे परिवर्तन के अभाव में, सामाजिक बदलाव अब भी एक अधूरा सपना था।
गांधीजी द्वारा गढ़ी गई 'आदर्श स्त्री' की छवि को अब चुनौती देने की आवश्यकता थी।
पंकज जी की कुछ अन्य कविताओं में भी स्त्री विमर्श के अन्य पहलुओं को देखा जा सकता है।
"कौन?" कविता में वे स्त्री को रूपवती, मोहिनी, और आत्म-निर्भर सत्ता के रूप में देखते हैं:
"कौन स्वप्न के चंद्रलोक से / छाया बन उतरी भू पर?"
यहाँ स्त्री केवल सौंदर्य की प्रतीक नहीं, अपितु एक रहस्यमयी और चैतन्यशक्ति है।
"सरिता" कविता में स्त्री को गंगा, जाह्नवी, व्यग्र, उन्मादिनी के रूप में चित्रित किया गया है:
"मैं बनी उन्मादिनी सखि / प्रिय मिलन को जा रही हूं।"
यह कविता स्त्री के यौनिक स्वत्व, इच्छाओं और आंतरिक उथल-पुथल को वाणी देती है।
"कली से" कविता में स्त्री की संभावनाओं और विकास की आकांक्षा व्यक्त होती है:
"खिल जा अरी वन की कली"
यह एक नवजागरण का स्वर है, जो स्त्री की निष्क्रियता के विरुद्ध सक्रियता का आह्वान है।
पहेली" कविता में वे समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों पर गहरा कटाक्ष करते हैं:
"पूर्णिमा के चाँद से भी / तीव्र हालाहल निकलता"
यह कविता समाज की सतही शुचिता के पीछे छिपे विष को उजागर करती है। यह पाखंड पर गहरा प्रहार है।
मानसी के प्रति", "मित्र की याद", "स्मृति" जैसी कविताएं संबंधों की कोमलता और विछोह की पीड़ा से भरपूर हैं, परंतु इनका स्वर केवल निजी नहीं है। वे स्मृति को एक सामाजिक दस्तावेज की तरह रचते हैं — जहाँ व्यक्ति और समाज का संवाद होता है।
निष्कर्ष:
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' की कविता केवल सौंदर्य-बोध या कल्पना का वितान नहीं है, बल्कि वह सामाजिक यथार्थ, संवेदना और संघर्ष की कविता है। उनकी काव्य-दृष्टि में स्त्री केवल प्रेमिका या प्रेरणा नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र सत्ता, सामाजिक सरोकार और भविष्य का रचनाकार है। 'पंकज-गोष्ठी' जैसे आंदोलन के माध्यम से उन्होंने साहित्य को धरातल से जोड़ने का कार्य किया।
आज जब स्त्री विमर्श और दलित विमर्श साहित्यिक विमर्शों के केंद्र में हैं, आचार्य पंकज की कविता इन विमर्शों की पूर्वपीठिका के रूप में फिर से पढ़ी जानी चाहिए। उनका काव्य समकालीनता की कसौटी पर भी खरा उतरता है, और आने वाले समय के लिए मार्गदर्शक बनता है।
अतः हम यह कह सकते हैं कि आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' का साहित्य उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय स्त्री विमर्श का एक सशक्त दस्तावेज है। उनकी पृष्ठभूमि—स्वाधीनता संग्राम, गांधीवादी मूल्य, और शैक्षिक योगदान—ने उनके काव्य को एक अनूठी दृष्टि दी। पंकज-गोष्ठी के माध्यम से उन्होंने संताल परगना में साहित्यिक आंदोलन को गति दी, जो उनकी रचनाओं में स्त्री चेतना को प्रसारित करने का आधार बना। उनका काव्य ऐतिहासिक संदर्भों से प्रभावित होकर आधुनिक स्त्री आंदोलन की नींव को मजबूत करता है। यह हमें सिखाता है कि स्त्री की मुक्ति सामाजिक परिवर्तन की आधारशिला है। इस प्रकार, पंकज का साहित्य हिन्दी साहित्य की धरोहर होने के साथ-साथ उत्तर-औपनिवेशिक भारत की सामाजिक यात्रा का एक जीवंत प्रतिबिंब है।
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