ग़ज़ल
ग़ज़लः
डॉ अमर पंकज
दिल्ली विश्वविद्यालय
हर ओर हमें अब नफ़रत के हथियार दिखाई देते हैं,
इन हथियारों का सब करते व्यापार दिखाई देते हैं।
बात नहीं हम केवल करते तकरार दिखाई देते हैं,
आज महाभारत के फिर से आसार दिखाई देते हैं।
नाम अदब का लेकर सिर्फ़ दुकान चलाते रहते हैं जो,
मुझको तो वे पाखंडी और मक्कार दिखाई देते हैं।
चीखपुकार मचाते रहते एंकर टेलीवीजन पर जो,
उनसे अच्छे खलनायक के किरदार दिखाई देते हैं।
हिन्दू मुस्लिम बाभन बनिये और दलित ओबीसी बनकर,
इक-दूजे पर सब लहराते तलवार दिखाई देते हैं।
जाति-कवच धारण करके कुछ लोग विदेशी कहते हैं जब,
तब हम अपनी ही धरती पर लाचार दिखाई देते हैं।
लोग 'अमर' अपने हैं लेकिन फिर भी क्यों बेगाने लगते,
अपनों से दूरी के लक्षण हर बार दिखाई देते हैं।
©डॉ अमर पंकज, 28-12-22
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