शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

आदरणीय श्री गंगेश गुंजन जी की वाल पर एक बहस खड़ी करने में यत्किंचित योगदान मेरा भी रहा है। इसलिए अभी जो लंबी प्रतिक्रिया मैंने वहाँ पोस्ट की है उसे ही यहाँ भी पोस्ट कर रहा हूँ। टंकण की कुछ अशुद्धियाँ रह गई होंगीं, जिन्हें कभी समय निकालकर ठीक कर लूँगा। परंतु, अभी इसे पोस्ट करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:
Amar Pankaj Jha बहुत ही रुचिकर बहस है। इसे आगे बढ़ाना चाहिए। परंतु व्यक्तिगत राग-द्वेष से ऊपर उठकर। मैं मैथिल होने का अपना दावा नहीं छोड़ूँगा क्योंकि लगभग 1000 वर्ष पूर्व मिथिला से पूर्वजों द्वारा देवघर प्रयाण के बाद भी आज तक हम अपनी पहचान मैथिल के रूप में ही करते आ रहे है। हाँ, ये बात दीगर है कि यहाँ आकर स्थानीय परम्पराओं से हमने बहुत कुछ ग्रहण भी किया और स्थानीयता को मिथिला से आयातित कई परम्पराओं से सींचकर समृद्ध भी किया। इसे 2017 में प्रकाशित मेरी पुस्तक " रीलीजन एंड मैकिंग ऑफ अ रीजन (अ स्टडी ऑफ संताल परगनाज)" में सविस्तार वर्णित किया गया है। इस तथ्य को बताने का एकमात्र कारण यही है कि मैं भी मैथिल की हैसियत से ही इस बहस में हिस्सा ले रहा हूँ, हालांकि मैथिली गजलों को बहुत अधिक नहीं पढ़ पाया हूँ।
आशीष अंचिन्हार की फेसबुक पर पोस्ट की गई मैथिली गजलों को थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता हूँ। अच्छी ग़ज़ल कहते हैं आशीष, इसमें कोई दो राय नहीं है। व्याकरण सम्मत और कहने का अंदाज भी नया। लेकिन मौजूदा बहस की शुरुवात आपकी उस टिप्पणी पर मेरे द्वारा व्यक्त की गई उस प्रतिक्रिया से संभवतः हुई है जहां मैंने "ग़ज़ल-बेबह्र" और आपने मजहर ईमाम तथा अन्य द्वारा प्रयुक्त "आज़ाद ग़ज़ल" की बात कही थी। मेरे वाल पर भी मेरे कुछ आत्मीय मित्रों ने इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि अगर बह्र में लिखनी / कहनी नहीं हो तो फिर ग़ज़ल ही क्यों? प्रिय आशीष अंचिन्हार जी ने भी बेलाग टिप्पणी दी थी। अतः इस पूरे प्रकरण में मैं कुछ बातें जरूर फिर से कहूँगा:
1) ग़ज़ल की दुनिया बहुत बड़ी है जिसमें नामी गिरामी शायरों से लेकर फिल्मी गीतकारों को भी रखा जा सकता है।
2) आम लोग अगर ग़ज़ल से आकर्षित हैं तो फ़िल्मों में गाने के रूप में ग़ज़लों को सुनकर, ना कि मुशायरों में शिरकत करके।
3) मुशायरों की अपनी महिमा है, वहाँ प्रायः उर्दू के ग़ज़लकार / शायर होते है, तो लाजिमी है कि वे उर्दू ग़ज़ल के व्याकरण से कोई सम्झौता नहीं करते हैं। इसीलिए हिन्दी और अन्य भाषाओं के शायर भी अगर उर्दू ग़ज़ल के व्याकरण का निर्वाह करते हैं तो वे प्रशंसा के पात्र है।
4) ग़ज़ल अगर आम लोगों तक लोकप्रिय विधा के रूप में पैठ बना चुका है तो इसके लिए पुराने-नए गायकों को ज्यादा श्रेय दिया जाना चाहिए जिनकी अद्भुत गायकी से यह करोड़ों दिलों में समा गई।
5) लेकिन अगर ध्यान से सुनेंगे तो कई बार ग़ज़ल के व्याकरण से थोड़ा-बहुत सम्झौता इन सभी बड़े गायकों ने भी किया है। यानी इस बिंदु पर पहुँचकर कर्णप्रियता और दिल को छू जाने वाले अल्फ़ाज़ की कोमलता ग़ज़ल की मुख्य विशेषता बन जाती है।
6) ग़ज़ल की इन्हीं विशेषताओं के कारण आज बहुत से युवा अपने-अपने अंदाज़ में अच्छी शायरी कह रहे हैं। मेरी मित्र-सूची में कई ऐसे नवोदित शायर हैं जिनकी शायरी को किसी भी मायने में कमतर नहीं कहा जा सकता है, सिवाय इसके कि वे बह्र में नहीं हैं।
7) आज फेसबुकिया साहित्यकार या कवि एक जुमला बन गया है, लेकिन सही कविता अब फेसबुक पर खूब उपलब्ध है। सही कविता कहने का आशय यह है कि वैसी कविता जिसमें सहजता से हृदय के भावों को इस तरह से अभिव्यक्त किया जा रहा है कि वह पाठकों के साथ रागात्मक संबंध बनाने में सफल हो जाती है।
8) तमाम आलोचनाओं के बावजूद मेरा मानना है कि सही साहित्य का भविष्य अब फेसबुक, व्हाट्सएप, वेब-मैगजीन जैसे माध्यमों पर ही टिका हुआ है।आने वाला समय इन्हीं माध्यमों का है। आने वाले समय के कवि, जिनके पाठक भी होंगे, अब यहीं मिलेंगे।
9) छोटे-बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित कवि या साहित्यिक पत्रिकाओं में सहजता से प्रकाशित कवि, जिन्हें स्थापित कवि मान लिया जाता है, मुख्यतः कुछ समीक्षकों और विद्वानों की अनुशंसा की उपज मात्र हैं।पत्रिकाओं में छप रही कविताओं की देखा-देखी में नकल करके एक ही तरह की लिखी गई कविताएं आ रहीं हैं आज, कम से कम हिन्दी जगत में । आलोचकों (पुराने और नए--सभी तरह के ) की रूढ़ मान्यताओं की कसौटी पर खरा उतरने के चक्कर में लिखी जा रही कविताएं ना सिर्फ दुरूह हैं, बल्कि बेजान भी हैं। सामाजिक सरोकार के नाम पर उनमें बस वाक्-क्रांति की फाॅर्मेलिटी पूरी की जाती हैं। सहजता, पठनीयता, रसात्मकता, 'कहन' में गुंफित संदेश --- कहीं कुछ नहीं होता, फिर भी वे अच्छी कविताएँ घोषित कर दी जातीं हैं। कविता में कविता क्या है, इसको लेकर पूरी एनार्की है। जितने आलोचक उतने मानदंड। लेकिन एक कसौटी है काॅमन, कि आपको किसी ना किसी मठाधीश का कृपा पात्र होना चाहिए। मानो कविता से ज्यादा 'कृपा' महत्वपूर्ण है। इसलिए आज कोई 'चर्चित कवि' है तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें पहले किसी एक ने फिर बाद में कई अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं ने, किसी आलोचक की पैरवी पर छापना शुरू किया था और उसी कारण वे लगातार छप भी रहे हैं। यही मठी साहित्य की ताकत रही है। लेकिन फेसबुक ऐसे मठाधीशों के चंगुल से साहित्य को मुक्त करा रहा है, इसलिए वर्तमान और भविष्य का साहित्य यहीं है।
10) मठाधीशों के चंगुल से मुक्ति पहली सीढ़ी है जहां से वर्तमान साहित्य का सफर शुरू हो रहा है, ग़ज़ल भी उसका अपवाद नहीं।
11) इस बात से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि ग़ज़ल यथासंभव बह्र में कहे जाएँ, लेकिन ग़ज़ल-बेबहर या आज़ाद ग़ज़ल की भी अपनी जगह है या होनी चाहिए, इसे भी कोई ख़ारिज नहीं कर सकता।
12) ऐसा भी नहीं है कि कोई या तो ग़ज़ल-बे-बह्र कहेगा या ग़ज़ल बा-बह्र। अपनी मनोभावनाओं के हिसाब से रचनाकर जिस तरह से सहज महसूस करेगा उसी हिसाब से रचना निर्माण करेगा।
13) एक ही व्यक्ति को कभी ग़ज़ल बे-बह्र तो कभी ग़ज़ल बा-बह्र कहने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। अगर आपको रचना अच्छी लगती है तो ठीक नहीं तो राम-राम।
14) कोई रचना हो सकता है आपको अच्छी लगे पर दूसरे को उतनी अच्छी नहीं लगे। इसका उलट भी हो सकता है। परंतु इसमें रचनाकार का क्या दोष है? यह तो आपकी अपनी अभिरुचि पर निर्भर करता है कि किसी रचना या रचनाकार से आपकी क्या अपेकषा है। अतः किसी रचना के मूल्यांकन के समय हमें सदाशयता से इन सभी तथ्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए।
15) साहित्य में मठाधीशों से मुक्ति का आज हमें जश्न जरूर मनाना चाहिए। रचना छंदों में हो या छंदमुक्त, चाहे ग़ज़ल बह्र में हो या अजाद ग़ज़ल बे-बह्र -- कम से कम लोग लिख-कह तो रहे हैं, और एक बड़ी दुनिया के सामने उन्हें प्रस्तुत भी कर रहे हैं। और सबके अपने-अपने पाठक-श्रोता भी हैं। फिर कोई ठेकेदारी करने की हिमाकत क्यों करे? करे भी तो उसे लोक-स्वीकृति कब तक मिलती रहेगी? संभवतः अब नहीं मिलेगी।
16) अभी पिछले दिनों संपन्न साहित्य -अकादमी के साप्ताहिक उत्सव में मैंने निजी बातचीत में कुछ आलोचकों और शायरों के समक्ष इस प्रश्न को रखा भी था।एक टैक्निकल सेशन में औपचारिक रूप से भी इससे मिलता-जुलता प्रश्न खड़ा किया था। सबों को इसकी गंभीरता को मानना पड़ा।
17) साहित्य में मठाधीशों की परंपरा ने बहुत से बड़े साहित्यकारों और विद्वानों को इतिहास के अंधकार में धकेल दिया, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं मेरे स्वर्गीय पिता थे। मात्र 58 वर्ष की अवस्था में ही,1977 में उनका निधन हो गया था। वे 1950 और 60 के दशक के रचनाकार थे । "पंकज" जी या ज्योतीन्द्र प्रसाद झा "पंकज" के नाम से अपने जीवन काल में ही उन्होने अकथनीय ख्याति अर्जित कर ली थी, अपनी रचनात्मकता, विद्वत्ता और आकर्षक व्यक्तित्व के बल पर। समकालीन हिन्दी जगत के कई धुरंधर इनके सामने बौने थे। परंतु बौने लोग अमर और महान साहित्यकार हो गए जबकि "पंकज" जी को उपेक्षा के अंधकार में ढकेल दिया गया। नतीजा, आज उन्हें कोई जानता तक नहीँ। (देखिये मेरे मित्र और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कालेज में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ विक्रम सिंह जी का शोधपरक आलेख -- " उपेक्षितों का काव्यान्दोलन: पंकज गोष्ठी- पूर्वपीठिका और महत्व" )।
18) उद्भट विद्वान होने के चलते इनकी धमस को बहुत सारे तथाकथित बड़े "साहित्यकार" और "विद्वान" पचा नहीं पा रहे थे इसलिए इनपर कोई चर्चा ही नहीं होने दी गई। लेकिन आज भी दरभंगा, सहरसा, पूर्णियाँ, भागलपुर, बाँका, गोड्डा, देवघर, जामताड़ा, मुंगेर, और जमुई में 80-85-90 तक की उम्र के ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे जो इनकी मेधा और प्रज्ञा से अभिभूत मिलेंगे। तो फिर इसे क्या कहा जाए? साहित्य में मठ-परंपरा का यह एक उदाहरण मात्र है।ऐसे और उदाहरण दिए जा सकते हैं।
19) मुझे जो एक बात अच्छी नहीं लगी वह यह कि मैथिल अब कटु भी होने लगे हैं, संभाषण और लेखन में। इस कटुता से जितना बचा जाए उतना श्रेयस्कर होगा।
20) मैंने आदरणीय गंगेश-गुंजन जी को पहले नहीं पढ़ा था (मैथिली भाषा में दक्षता नहीं होने के कारण) लेकिन अब फेसबुक के माधायम से हिन्दी में और मैथिली में भी उन्हें पढ़ रहा हूँ। निश्चित रूप से वे प्रमुख रचनाकार के रूप में समादृत हैं और मैथिल समाज के गौरव हैं।
अंत में सभी लेखकों-पाठकों से निवेदन है कि हम आलोचना-प्रत्यालोचना जरूर करें, अपनी-अपनी मान्यताओं को भी दृढ़ता से रक्खें भी, लेकिन अपनत्व के साथ। आत्मीयता और अपनापन ही साहित्य की सबसे बड़ी थाती है। इसी निवेदन के साथ सबों को नमस्कार।
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Ram Janam Mishra अच्छा लगा।विमर्श दर विमर्श शालीनता के साथ। धन्यवाद।
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Kaushik Kumar Mishra सत्य को प्रतिबिंबित करता हुआ सुन्दर लेख। *********************************** मुझे सन्दर्भ नहीं पता उल्लिखित सम्माननीय नामों से परिचय नहीं है, विनम्रतापूर्वक कहूँ इच्छा भी नहीं रखता। स्वयं को "देवघरिया मैथिल" कहता हूँ और इस पर गर्व भी करता हूँ, इसलिए 'देवघरिया कवि सम्मेलन' किया करता हूँ ,मैथिली नहीं। *********************************************************************************अब रहा प्रश्न कविता का तो कविता "भावप्रधान" हुआ करती है , शब्दप्रधान नहीं। इसलिए काव्यशास्त्र में "शब्दालंकारों" की जगह "अर्थालंकारों" को अधिक महत्त्व दिया गया है। यह ज़रूर है कि भाव का प्रस्तुतीकरण शब्दों द्वारा ही होता है, परन्तु यह कवि की स्वतंत्रता है कि वह कैसे शब्दों में अपने भावों को गुम्फित करता है। ग़ज़ल में बह्र, या कविता में छंद लघु, गुरु मात्राओं के हिसाब से शब्दों को बाँधने के तरीक़े हैं। इससे कविता कहने में आसानी हो जाती है ,पर शब्द बाँध लेने मात्र से कविता नहीं बन जाती । कविता मनोहारिणी तभी होगी जब सम्यग्तया भाव-संयोजन हो। छंद और बह्र " गेयता" का आधान सहजता से करते हैं पर कवि, शायर की अपनी शैली, मीटर या छंद से भी गेयता आती है, 95% गाने ,आज की कविताएँ ऐसी ही लिखी जा रही हैं , जैसा आपने भी कहा । हिंदी साहित्य आज इतना उन्नत, बृहत् नहीं होता यदि संस्कृत, हिंदी, उर्दू के पुराने छंदों, बह्रों का ही अनुसरण करता । साहित्य में हर तरह की कविता का स्वागत होना चाहिए। भाव-प्राधान्य से छान्दाश्रित भी , छंदमुक्त भी तुकांत भी, अतुकांत भी , बा-बह्र भी, बेबह्र भी सबका आनंद उठाना चाहिए।
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Shambhu Kumar Singh एक बेहतरीन समीक्षा 👍👍
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Lalit Narayan Dwary Surya ki laalima ko chupaya ja sakta hai...lekin uske prachand prakash ko nahi chupaya ja sakta...

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