भर दूं दुनिया को जज्बात से
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
भर दूं दुनिया को जज्बात से मैं
अगर हौसले पर
यूं चढ़ती रहे परवान।
नित देखता हूँ
दर्दे-दरिया हजारों जज्ब कर भी
निकल ही आती
तेरे लबों पर
छोटी सी मुस्कान।
उनको क्या मालूम
भरी दुपहरी जेठ की रेत पर
नंगे पाँव चलते रहकर
पहाड़ी जोर से
घैला भर-भरकर
पानी लाते रहने का जज्बा
फिर अपने-पराए के भेद बिना
शीतल जल सबको पिलाना
प्यास सबकी बुझाना
हर्षित-सस्मित अविराम
नहीं होता बहुत आसान।
बहुत दुश्वारियां हैं
भले ही
हजारों परेशानियां हैं
फिर भी तू चलता रहा
ध्येय की ओर
सतत बढ़ता रहा
कोई क्या जाने
कि क्यों हर बार
इतने पास आकर
रस्ता तेरा छोड़ने पर मजबूर
बवंडर और तूफान।
बस देखता जा दौर
आज के रहनुमाओं का
और उनके
अनोखे खेल का भी
हैं जिनके
खून के छीटों से सने दामन
मसीहाई का ऊन्हें अरमान।
बहुत हो गया मजबूत भी मुल्क
हम आंखें तरेरें दुश्मनों पर
तो क्या हुआ जो सरहदों पर
शीष कटते रोज
रोज जंगलों में मारे जाते
अनगिनत वीर-विवश जवान।
बडे तफ्सील से देखा है हमने
राजधानी दिल्ली को
यहाँ की
चौड़ी सड़कें और तंग गलियां
खंडहर हो चुकी
सदियों पुरानी इमारतें
बंगलों तथा झुग्गियों को
सभी अजनबी हमसाए की तरह
खड़े एकसाथ आमने-सामने मकान।
चारो ओर शोर ही शोर है
विकास की आंधी का शोर
विकास एक मृग-मरीचिका
बसता है दूर कहीं टापुओं पर
चमचमाते रोशनदान उसके
छन-छन कर आती है
चकाचौंध करती आँखों को
चुँधियाती मोहिनी रोशनी
अफीमी गन्ध उसकी
कर रही सबको बदहवास
और उधर कर्ज के बोझ तले दबे
आत्महत्या कर रहे किसान।
अब गांवों से
सौंधी मिट्टी की महक नहीं आती
तभी तो सब भागते जा रहे
विकास के पीछे मदहोश होकर
बच्चे, बूढ़े और जवान।
ऊजडे गाँवों में दिखती कहाँ अब
गाय-भैंस-बकरी की चौपाल
कहाँ अब थिरकती-फुदकती
खिलखिलाहटों से आँगन बुहारती
खेतों-खलिहानों में रस बरसाती
सरस गीत गाती ग्रामिणाएं
ग्रामिमाओं को रिझाते
अब कहाँ चरवाहों के उन्मुक्त गान।
हर जगह दम तोड़ती आदमियत
ये नजारे आम हैं अब
जतन से कंधों पर उठाए हुए
खुद अपनी अबरू के जनाजे
बेतहाशा भागे जा रहे लोग
मासूमियत दिखती नहीं
कहीं ताजगी मिलती नहीं
हर तरफ फैली हुई
अजीबोगरीब सी थकान।
हम सभी उलझे हुए हैं
कौन किसको क्या कहे
यहाँ तो
सिर्फ वे लोग ही सुलझे हुए हैं
मुनाफे में
चल रही है जिनकी
सियासत की दुकान।
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
भर दूं दुनिया को जज्बात से मैं
अगर हौसले पर
यूं चढ़ती रहे परवान।
नित देखता हूँ
दर्दे-दरिया हजारों जज्ब कर भी
निकल ही आती
तेरे लबों पर
छोटी सी मुस्कान।
उनको क्या मालूम
भरी दुपहरी जेठ की रेत पर
नंगे पाँव चलते रहकर
पहाड़ी जोर से
घैला भर-भरकर
पानी लाते रहने का जज्बा
फिर अपने-पराए के भेद बिना
शीतल जल सबको पिलाना
प्यास सबकी बुझाना
हर्षित-सस्मित अविराम
नहीं होता बहुत आसान।
बहुत दुश्वारियां हैं
भले ही
हजारों परेशानियां हैं
फिर भी तू चलता रहा
ध्येय की ओर
सतत बढ़ता रहा
कोई क्या जाने
कि क्यों हर बार
इतने पास आकर
रस्ता तेरा छोड़ने पर मजबूर
बवंडर और तूफान।
बस देखता जा दौर
आज के रहनुमाओं का
और उनके
अनोखे खेल का भी
हैं जिनके
खून के छीटों से सने दामन
मसीहाई का ऊन्हें अरमान।
बहुत हो गया मजबूत भी मुल्क
हम आंखें तरेरें दुश्मनों पर
तो क्या हुआ जो सरहदों पर
शीष कटते रोज
रोज जंगलों में मारे जाते
अनगिनत वीर-विवश जवान।
बडे तफ्सील से देखा है हमने
राजधानी दिल्ली को
यहाँ की
चौड़ी सड़कें और तंग गलियां
खंडहर हो चुकी
सदियों पुरानी इमारतें
बंगलों तथा झुग्गियों को
सभी अजनबी हमसाए की तरह
खड़े एकसाथ आमने-सामने मकान।
चारो ओर शोर ही शोर है
विकास की आंधी का शोर
विकास एक मृग-मरीचिका
बसता है दूर कहीं टापुओं पर
चमचमाते रोशनदान उसके
छन-छन कर आती है
चकाचौंध करती आँखों को
चुँधियाती मोहिनी रोशनी
अफीमी गन्ध उसकी
कर रही सबको बदहवास
और उधर कर्ज के बोझ तले दबे
आत्महत्या कर रहे किसान।
अब गांवों से
सौंधी मिट्टी की महक नहीं आती
तभी तो सब भागते जा रहे
विकास के पीछे मदहोश होकर
बच्चे, बूढ़े और जवान।
ऊजडे गाँवों में दिखती कहाँ अब
गाय-भैंस-बकरी की चौपाल
कहाँ अब थिरकती-फुदकती
खिलखिलाहटों से आँगन बुहारती
खेतों-खलिहानों में रस बरसाती
सरस गीत गाती ग्रामिणाएं
ग्रामिमाओं को रिझाते
अब कहाँ चरवाहों के उन्मुक्त गान।
हर जगह दम तोड़ती आदमियत
ये नजारे आम हैं अब
जतन से कंधों पर उठाए हुए
खुद अपनी अबरू के जनाजे
बेतहाशा भागे जा रहे लोग
मासूमियत दिखती नहीं
कहीं ताजगी मिलती नहीं
हर तरफ फैली हुई
अजीबोगरीब सी थकान।
हम सभी उलझे हुए हैं
कौन किसको क्या कहे
यहाँ तो
सिर्फ वे लोग ही सुलझे हुए हैं
मुनाफे में
चल रही है जिनकी
सियासत की दुकान।
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