हर वक़्त आँसू पी रहा मैं बात है ये कम नहीं
इस दौर में भी जी रहा मैं बात है ये कम नहीं
इंसाफ़ की कैसी डगर घायल हुआ तन-मन मेरा
हर घाव को पर सी रहा मैं बात है ये कम नहीं
फैली हुई है आज ज़हरीली हवा चारों तरफ़
पर साँस ले फिर भी रहा मैं बात है ये कम नहीं
मुझको डराती है नहीं अब तीरगी मैं हूँ दिया
बिन तेल जलता ही रहा मैं बात है ये कम नहीं
सूखी हुई लकड़ी कहो क्या नर्म हो सकती 'अमर'
उसपर लगाता घी रहा मैं बात है ये कम नहीं
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