बुधवार, 30 जून 2010

आचार्य पंकज के विराट व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि: उद्‍गार - अमरनाथ झा

आचार्य पंकज के विराट व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि: उद्‍गार
आज 30 जून है. आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जन्मदिवस. अगर आज वे होते तो 91 साल के हो चुके होते. परंतु दीर्घायु होना उनके भाग्य में नहीं था. बल्कि समस्त हिंदी संसार का यह दुर्भाग्य था कि पंकज जी जैसे उद्‍भट्ट विद्वान और महत्वपूर्ण कवि मात्र 58 वर्ष की उम्र में अलविदा हो गये. इससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि अपने अनेकों कार्यों से इतिहास बनाने वाले इस चामत्कारिक व्यक्तित्त्व की साहित्यिक सेवाओं का हिंदी समाज में समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं किया है. पिछले बरस आज ही के दिन उनकी 90 वीं जयन्ति पर समस्त अंग प्रदेश के कृतज्ञ कवियों, लेखको और बुद्धिजीवियों ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके ऐतिहासिक अवदानों का पुण्य स्मरण किया था.
पिछले बरस ही उनकी 32 वीं पुण्य तिथि पर यहां दिल्ली में भी जहां एक ओर डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने उनकी पचास बरस पुरानी हिमालय शीर्षक कविता को आज तक हिमालय पर लिखी गयी हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित की थी, वहीं मस्तराम कपूर ने उनकी उद्बोधन शीर्षक कविता को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बताते हुए इसके लेखक को स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष से निकला हुआ तथा नवीन भारत के निर्माण के सपनों से सराबोर अति विशिष्ट रचनाकार बताते हुए उनकी आज तक की गुमनामी को हिन्दी जगत के कुछ ’गिरोहबाजों’ का षड्‍यंत्र तक घोषित कर दिया.
लेकिन क्या सचमुच पंकज जी गुमनामी में खो गये है. अगर ऐसा है तो संताल परगना की लोकस्मृति में नायक के तौर पर कैसे समादृत हो गये. संताल परगना की साहित्यिक परिचर्चा हो और वह पंकज जी के आस-पास घुमती हुई आगे न बढती हो तो वह परिचर्चा पूर्ण ही नहीं होती. यही पंकज जी को अमरत्व प्रदान करती है. अत: पंकज जी पर नये सिरे से अध्ययन करने की जरूरत आज हमें महसूस होती है.
उद्‍गार काव्य संग्रह को पढने से बरबस हमें यह कहना पडता है कि यह उनके विराट व्यक्तित्त्व की प्रतिध्वनि भी है. यहां यह भी बहस भी खडा होता है कि साहित्य से समाज है या समाज के लिये साहित्य होता है. व्यक्ति साहित्यिक कर्म से बडा बनता है या साहित्यिक कर्म बड़े व्यक्तित्त्व का एक हिस्सा होता है तथा उसको समझने का साधन भी होता है. इसका उत्तर किसी फार्मूले के रूप में नहीं दिया जा सकता. मुझे लगता है साहित्य और समाज के रिश्ते की तरह ही साहित्य और व्यक्ति का रिश्ता भी बहुआयामी होता है. इसके कई स्तर होते है. कुछ ऐसे व्यक्तित्त्व होते है जो बहुत कुछ लिख जाते है. कुछ ऐसे भी व्यक्तित्त्व होते है जो बहुत कम में भी बहुत कुछ लिख जाते है. गागर में सागर की तरह उद्‍गार अपनी कविताओं में अनंत ब्रह्मांड और मनुष्य के बहुस्तरीय संबंधों और अनुभूतियों का विराट संसार समेटे हुए है. उद्‍गार का विराट संसार मूलत: कवि पंकज के विशद्‍ जीवनानुभव से विकसित संसार ही है.
है एक हाथ में सुधा कलश
दूसरा लिये है हालाहल
मैं समदर्शी देता जग को
कर्मों का अमृत व विषफल
यह पंकज की गर्वोक्ति नहीं थी बल्कि उनकी समतामूलक दृष्टि थी जिसको बिना किसी वाद के घेरे से बंधा घोषित किये हुए भी पंकज अत्यंत सहजता से व्यक्त कर सकते थे. उनको जानने वाले बताते है कि यह समतामूलक दृष्टि उनके समतावादी जीवनशैली की उपज मात्र थी, कहीं से आरोपित या ओढ़ी हुई नहीं. क्या गांधी के रंग में रंग कर सन‌‍ 42 के करो या मरो मंत्र का जाप करते हुए भारत छोड़ो आंदोलन के क्रांतिकारी कवि को किसी वाद से समतामूलक दर्शन विकसित करने की जरूरत थी? कतई नही.... वे तो इन मूल्यों को जीते थे और औरों को भी अपने जीवनानुभव से सतत संघर्षरत रहने को प्रेरित करते थे. उदाहरण के लिये उनकी आश्वासन कविता देखिये......

आश्वासन


 मत कहो कि तुम दुर्बल हो
	मत कहो कि तुम निर्बल हो
		तुम में  अजेय  पौरूष  है
			तुम काल-जयी अभिमानी। 

तुम शक्ति स्त्रोत अक्षय हो तुम अप्रमेय तुम चिन्मय । विज्ञान--ज्ञान की निधि तुम तुम हो असीम, तुम भास्वर

तुव विभु की ज्योति-किरण हो तुम विश्व-फलक--प्रतिबिम्बी तुम प्राण फूक सकते हो पत्थर की जड़ प्रतिमा में ।

पाकर शुचि स्पर्श तुम्हारा मरू में जीवन लहराता । तुम वह अनुपम पारस जो लोहे को स्वर्ण बनाता ।

तुम में अमोघ विक्रम है तुम में विराट्‍ है पलता । तुम नाप सहज ही सकते त्रिभुवन को तीन पगों में ।

दो फेंक आवरण वह जो तुम को लघु है बतलाता द्विविधा का जाल बिछाकर है बीच डगर भरमाता ।

माना कि विश्व जर्जर है है मनुज--चेतना सोई तुम नव विहान ला सकते आह्वान नया दे सकते ।

नव विश्व--सृजन कर सकते कर ध्वंस पुरातन को तुम तुम नव युग के मानव को भगवान नया दे सकते ।


कोई भी हताश मन इस कविता को पढकर सहज ही कर्तव्यबोध, स्वाभिमान और संघर्ष का पर्याय बन जायेगा ऐसा हमारा मानना है. ठीक इसी तरह उनकी एक अन्य कविता को रखना चाहता हूं और आपके ऊपर इस बात को छोड़ता हूं कि आप पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है....

पंथी:--

 बढ़े अगम की ओर बीच में
	पंथी फिर अब रुकना कैसा ?
		जूझ चुके हो झंझा से जब
			सहसा तब यह झुकना कैसा

मन की रास शिथिल कर दी है
	तभी चरण डगमगा रहे हैं
		देखो नील गगन में अगणित
			विभा-दीप जगमगा रहे हैं ॥

संशय-कीट बड़े निर्मम ये
	आशा-सुमन कुतरते ही हैं ।
		संकल्पों के गिरि-शुंगों पर
			द्विविधा-मेघ उतरते ही हैं ।

उनकी धूल उड़ाते लेकिन
	तुमको अविरत बढ़ना ही है ।
		मंजिल पाने को राही, शत
			अवरोधों से लड़ना ही है ॥

बड़ा मनोहर स्वप्न-जाल है
	  मनका हिरन बिबस बँध जाता ।
		मृग--तृष्णा-विभ्रम   में   बंदी
			 फिर तो  तड़प-तड़प अकुलाता

सावधान ! लग जाए तुम पर
	कहीं न इसका जादू टोना ।
		फिरे न पानी अरमानों पर
			लुटे न पावन तप का सोना ॥

चले बहुत चलते ही जाओ
	तुमको बस, चलना हर दम है ।
		पथ को जो पहचान लिया तो 
			मंजिल समझो चारकदम है ॥

आइए आज 30 जून 2010 के इस पावन दिवस पर कृतज्ञ संताल परगना, अंग प्रदेश एवं बृहत्तर हिंदी संसार की ओर से उनको हम सब विनम्र श्राद्धांजलि अर्पित करें.

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