आज कल देश में कई तरह की प्रवृतियाँ और विकृतियाँ एक साथ सक्रिय हैं. साहित्य, खेलकूद, संसद, सरकार, शिक्षा और धर्म--प्रत्येक मोर्चे पर कानफाडू चीख-पुकार मची हुयी है. सभी कोई देश सवारने में लगे होने का दावा कर रहे हैं, पर समाज बिखरता जा रहा है. क्यों?
धर्म,जाति, के ठेकेदार जोर-जोर से अपनी बात कहकर खुद के जीतने का अहसास करा रहे हैं, राजनीति के चतुर खिलाडी हमारी संवेदनाओं को कुचलते हुए देश को विकास के पथ पर ले जाने का आलाप कर रहे हैं, शिक्षक पूरे देश को क्रांति का पाठ पढ़ाने में लगे हुए हैं जबकि कॉलेज वीरान हो रहे हैं.
साहित्यकारों की क्या बात करें? अपने-अपने मठों के महंत दूसरों की बोटी-बोटी नोच लेने पर तुले हुए हैं. हम जो लिखें साहित्य; तुम लिखो तो कूड़ा--ये हिंदी जगत की शाश्वत घटिया राजनीति है और लेखक होने के कारण हम जन्मना महान हैं.
क्या कहें, क्या न कहें?
वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हावी है.
क्या करें हम?
क्या करो तुम?
क्या करें हम सब?
कैसे करें हम सब?
रविवार, 29 अगस्त 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
सरकारी कर्मचारियो के बच्चे प्राइवेट स्कुलो में क्यों?
जवाब देंहटाएंभारत सरकार ने कभी एसा सर्वे कराया की - सरकारी कर्मचारियो के बच्चे कोंसी स्कुलो में पढ़ते है।
सरकारी अधिकारिओ/कर्मचारियो को क्यों भरोषा नहीं इन सरकारी स्कुलो पर? जिसकी वजह से वे आपने बच्चे को प्राइवेट स्कुलो में पढ़ने भजते है। क्या सरकारी स्कुल गरीब बच्चो के लिए ही है।