रविवार, 6 सितंबर 2020

ग़ज़ल



छुपा राज़ जब बेलबादा हुआ है,
हुनर का खुलासा ज़ियादा हुआ है।

लुटाया है जब मैनें जो कुछ था मेरा,
मेरे दाम में इस्तिफ़ादा हुआ है।

मिटी याद सारी पुरानी मैं खुश हूँ,
सफ़ा डायरी का भी सादा हुआ है।

भटकता रहा जब यहाँ से वहाँ तक,
तो जाना तेरा दिल कुशादा हुआ है।

बचा खोने को है 'अमर' कुछ नहीं जब,
तो मज़बूत मेरा इरादा हुआ है।

ग़ज़ल



ख़ौफ में है शह्र सारा बेबसी फैली हुई है,
हम घरों में बंद हैं तो हर सड़क सूनी हुई है।

वक़्त बदला लोग बदले पर नही तक़दीर बदली,
दिन भयानक हो गए हैं रात हर सहमी हुई है।

भाग्य ने है छल किया क्या क्या किया मैं क्या बताऊँ,
लाश बनकर जी रहा हूँ ज़िंदगी ठहरी हुई है।

साथ सच का ही दिया सच को जिया है उम्र भर पर,
चुप हुआ मैं आज सबकी चेतना सोई हुई है।

ख़ून मैंने कर दिया है आज अपनी आत्मा का,
मूँद लो आँखे 'अमर' अब हर फ़ज़ा बदली हुई है।

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

ग़ज़ल

गजल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--987160362

कड़ा पहरा है मुझपर तो सँभलकर देखता हूँ मैं,
बदन की क़ैद से बाहर निकलकर देखता हूँ मैं।

कभी गिरना कभी उठना यही है दास्ताँ मेरी,
बचा क्या पास है मेरे ये चलकर देखता हूँ मैं।

जिधर देखो उधर है आग छूतीं आसमाँ लपटें,
चलो इस अग्निपथ पर भी टहलकर देखता हूँ मैं।

बहुत है दूर मुझसे चांद पर छूने की ख़्वाहिश है,
उसे छूने को बच्चों सा मचलकर देखता हूँ मैं।

नहीं उलझन सुलझती है कठिन हैं प्रश्न जीवन के,
पहेली से बने जीवन को हल कर देखता हूँ मैं।

ग़मों के बोझ से बोझिल हुईं गमगीन पलकें जब,
तेरी आँखों से बनकर अश्क ढलकर देखता हूँ मैं।

न बदला है न बदलेगा 'अमर' दस्तूर दुनिया का,
मगर तेरे लिये ख़ुद को बदलकर देखता हूँ मैं।

ग़ज़ल



अगर मैं तेरे शह्र आया न होता,
तो दिल को भी पत्थर बनाया न होता।

उजड़ती नहीं ज़िंदगी हादसों से,
अगर होश अपना गँवाया न होता।

सँपोले के काटे तड़पता नहीं मैं,
अगर दूध उसको पिलाया न होता।

बयाँ तजर्बा अपना करता मैं कैसे
अगर ज़िंदगी ने सिखाया न होता।

कभी कह न पाता ग़ज़ल इस तरह मैं,
अगर जख़्म मैंने भी खाया न होता।

अँधेरों में भी रोशनी आती छनकर,
अगर चाँद ने मुँह छुपाया न होता।

तेरी याद में मुस्कुराता वो कैसे,
अगर तू 'अमर' उसको भाया न होता।

ग़ज़ल


ग़ज़लः

क्या है अच्छा और क्या अच्छा नहीं कैसे कहें,
है यहाँ पर कोई भी सच्चा नहीं कैसे कहें।

हम ग़ज़ल हिन्दी में कहते चढ़ सके जो हर जुबां,
अब दिलों में घर बने इच्छा नहीं कैसे कहें।

दोस्त समझा और हमने भी भरोसा कर लिया,
दोस्ती में भी मिला गच्चा नहीं कैसे कहें।

तेज़ सी आवाज़ है और तल्ख़ से अल्फाज़ भी,
उनको अच्छी ही मिली शिक्षा नहीं कैसे कहें।

दाद दी हर शेर पर उसने हमें दिल भी दिया,
वह अभी मासूम सा बच्चा नहीं कैसे कहें।

क्यों गुज़ारिश पर गुज़ारिश आपसे अब भी करें,
आपने जो भी दिया भिक्षा नहीं कैसे कहें।

दो क़दम आगे बढ़ा पीछे हटा तू सौ क़दम,
प्यार में तू है 'अमर' कच्चा नहीं कैसे कहें।