शनिवार, 22 दिसंबर 2018

अब सब सायाने हो गये
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
ऐसा नहीं कि लोग सुनते नहीं
किसी को भी नही सुनते लोग
गौर से देखा-सुना करिए आप भी
कोयल, मोर, कौआ, मुर्गे
मेढक, झींगुर, भौंरे, तितली सबको
मौसम-बेमौसम रोज-रोज
अब सुना करते लोग।
शेरों की नकल करते सियारों की
बनावटी दहाड सुन रोज हँसते हैं लोग
तो क्या हुआ जो अब जंगल नहीं रहे
शहर ही कंक्रीट के जंगल बन गये
जंगली जानवर शहर आ गये फिर भी
शेर और शियार के फर्क को
पहचानते हैं लोग।
ऐसा नहीं कि लोग मुझे नहीं सुनते
मेरा बोलना तो क्या खांसना भी
कान लगाकर सुनते हैं लोग
बातें क्या हमेशा शक्ल देखकर
कयास लगाते हैं लोग
भंगिमाओं का मतलब
अक्सर गुनते रहते हैं लोग।
सबको बड़े ध्यान से सुनते हैं लोग
केजरीवाल जी को सुनते हैं
मोदी जी को भी सुनते हैं
और आजकल तो
योगी जी को सुनते रहते हैं लोग
सब के सब जो सुनाते रहते हैं
मंदिरों से, मसजिदों से
जागरणों से, ज़लसों से
भौंपू पर चीख कर कान पकाते रहते हैं
उनको भी सुनते रहते हैं लोग।
कल भी सुनते थे लोग
आज भी सुनते हैं लोग
युगों-युगों से इस धरा पर
लोगों का काम ही रहा है सुनना
वेद सुनना, पुराण सुनना
रामायण सुनना, महाभारत सुनना
कथा सुनना, काविताएं सुनना
लफ्फाजी सुनना, भाषणबाजी सुनना
चुटकुलेबाजी सुनना, बहानेबाजी सुनना
सब कुछ बाअदब सुनते रहे हैं लोग।
लेकिन अब सब सयाने हो गये
सुनी-सुनाई बात पर कम
खुद की गुनी हुई बात पर ज्यादा
भरोसा करते हैं लोग
इसीलिए आप कुछ भी कहते रहिये
अब सभी को पहचानने लगे हैं लोग
हाँ सभी को गौर से देखने-सुनने लगे हैं लोग।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

(ग़ज़ल)
कहना ग़ज़ल अब मेरी आदत बन गई
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कहना ग़ज़ल अब मेरी आदत बन गई
ये ज़िंदगी में ज़ख्म निस्बत बन गई
कुदरत ने जलवे कुछ दिखाए इस कदर
कुदरत की हर शै ही इबादत बन गई
लमहों में जीने का मज़ा अब आ रहा
लमहों की खुशियाँ मेरी किस्मत बन गई
पीते रहे ग़म, प्यास भी बढ़ती रही
उल्फ़त, पिए बिन ही हकीकत बन गई
कोई पिए तन्हा तो कोई बज्म में
आँखों से मय पीने की, आदत बन गई
मैंने पिए प्याले ग़मों के उम्र भर
अब अश्क़ पीना मेरी फ़ितरत बन गई
बेचैन तुम पीने की ख़्वाहिश में 'अमर'
हाथों में साग़र हो ये चाहत बन गई
------ डॉ अमर पंकज

दोहे
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जीवन हर्ष-विषाद है, रहता सबके साथ
धीरज से तुम काम लो, विधि के लंबे हाथ।
पचपन अब पूरे हुए, लेकिन हृदय जवान
मिली शोहरत भी मुझे, किया कभी न गुमान।
वर्ष सैंकड़ों जा चुके , छोड़ा मिथिला धाम
पुण्य धरा शिव-शक्ति की, खैरबनी है ग्राम।
ठिठुरन भी लाती हँसी, शिशिर दे रहा सीख
भाग्य सिर्फ पुरुषार्थ है, हर्ष नहीं है भीख।
कृष्ण पक्ष शनिवार था, सुखमय अगहन मास
साल बीस सौ बीस का, दिन वो था इक खास।
जब मैं पहुँचा मर्म तक, बहा नयन से नीर
पीछे इस मुस्कान के, अकथनीय सी पीर।
दुमका-सारठ-देवघर, से मेरी पहचान
दिल्ली में सब दिन रहा, लेकिन मैथिल आन।
बरस दुवादस देहली, बीस गाज़ियाबाद
घाट-घाट के नीर का, चखा प्रेम से स्वाद।
पापड़ बेले हैं बहुत, किया कभी न मलाल
उबड़-खाबड़ रही डगर, किया कभी न सवाल।
भाव शून्य मत हो 'अमर', देखो जीवन-रंग
प्रीति करो मन में रखो, हर दिन नई उमंग।
 अमर पंकज 🌹🌹🌷🌷🌷🌷🌷🌷