बुधवार, 13 दिसंबर 2017

ग़ज़ल बे-बहर (नज़्म ही मेरी आवाज़ है )

ग़ज़ल बे-बहर
{नज़्म ही मेरी आवाज़ है}
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
09871603621
1.
एक-एक कर ढ़हने लगीं ईमारतें
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एक-एक कर ढ़हने लगी ईमारतें बनी हैं रेत में दिखती हैं
अब आदमी कहाँ भीड़ उजड़ी इन बस्तियों में दिखती है।
उम्र भर कोशिश करते रहे धरोहरों को बचाए रखने की
पर उजड़े गांवों की टीस यहाँ कहां किसी में दिखती है।
लबालब पोखर में पेड़ की फुनगी चढ़ कूदने की कशिश
बंद-साँसों गोता लगा तलहटी छूने वालों में दिखती है।
पता है जम्हुरियत की फसल अब ईंवीएम में लहराने लगी
धूर्त्तों को मिली चैन उनकी बेफ़िक्री की नींद में दिखती है।
ज़िन्दगी की जंग जीतने का ज़ज्बा बीती कहानी भर नहीं
अपनों की मुस्कुराहट अब आभासी दुनिया में दिखती है।
कैसे मर जाने दूँ जज़्बात ज़िन्दा रहने का हौसला 'अमर'
पांडवों की साधना की परिणति महाभारत में दिखती है।
2.
भगवान को ही बंधक बना लिया करते हैं
.....................................................
वो हिन्दू-मुसलमां मंदिर-मसजिद की सियासत किया करते हैं
धरम के नाम पर भगवान को ही बंधक बना लिया करते हैं ।
ये घिसे-पिटे लोग रहनुमा होने का दम भरते कभी नहीं थकते
गौर से देख खाये-अघाये लोग सियासत में आया करते हैं ।
दरअस्ल जिन्दगी की जद्दोजहद भी सियासत ही है मेरे दोस्त
जिंदगी की जंग में सियासत के मायने बदल जाया करते हैं ।
जमीं-आसमां का फरक है उनकी और मेरी सियासत में हुजूर
करें वो बेसुध वादा-ए-अफीम से नज्मों से हम जगाते हैं।
हालाते-मुल्क बदलने का ज़िम्मा आपके कंधों पर है नौजावानो
ध्यान रखा कर कई लोग सलीके से तुम्हें बहकाया करते हैं ।
इस दौर में सियासात की बातें तो सभी किया करते हैं 'अमर'
मगर सच के लिए सियासत हो कि हम गजल कहा करते हैं।
3.
कुछ ख्वाब कुछ हाकीकत
...................................
शायर हूँ खुद की मर्जी से अशआर कहा करता हूँ
कहता हूँ कुछ ख्वाब कुछ हकीकत बयां करता हूँ।
अपना तो हुनर है तसव्वुर में दीदारे-दहर ऐ दोस्त
थोड़ा मिलकर भी सबकी पूरी खबर रखा करता हूँ।
यूं तो छुपाने की पुरजोर कोशिश किया करते आप
वो तो मैं हूँ के सोजे-निहाँ मुश्तहर किया करता हूँ।
कैसे कह दूँ दुनिया-ए-अदब का इल्म नहीं आपको
तमीज़ भी होती है खुद को फनकार कहा करता हूँ।
आप भी तो वाकिफ हैं मेरी तबीयत से मेरे हाकिम
कोहे-गम में भी मैं पासे-हयात ढूंढ लिया करता हूँ।
जमाने की फितरत है सियासी-सितम जानते हैं 'अमर'
सच का सामना हो इसीलिए मैं गजल कहा करता हूं।
4.
जज्बात बचाए रखना
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शायर है तू अशआर कहने के अन्दाज़ बचाए रखना
नज्म़ लिखने गज़ल कहने के जज्बात बचाए रखना।
वक्त की नजाकत व मजबूरियों की बात सभी करते
सच से रु-ब-रु करा सकें जो वाकयात बचाए रखना।
हिला ना सकी तेज आँधियां अपनी ज़ड़ों से तुमको
तुझे तकने लगीं हैं निगाहें ये लमहात बचाए रखना।
बेवक्त की बारिश में कभी फसल नहीं उगा करती
ये दौर भी बदलेगा भरोसे के हालात बचाए रखना।
पल-पल में रंग बदलता गिरगिट सा जमाना मगर
सय़ाने संग मासूम भी यहां खयालात बचाए रखना।
बेखुदी में अक्सर आईना देखते-दिखाते हो 'अमर'
दिलों को समझ सको वो एहसासात बचाए रखना।
5.
ग़ज़ल क्या कहे मैने
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ग़ज़ल क्या कहे मैंने तुम तो खबरदार हो गए
जज्बात जो भड़के मेरे सब तेरे तरफदार हो गए।
दुश्मनों की कतार में तुमको नहीं रक्खा हमने
हम सावधान ना हुए और तुम असरदार हो गए।
सितम ढ़ाने के भी गजब तेरे अन्दाज हैं जालिम
जिनसे भी तुम हट के मिले वो सरमायेदार हो गए।
कुछ हम भी तो वाकिफ हैं हुकुमत की फितरत से
सब जो कल तक थे मेरे आज तेरे ही वफादार हो गए।
कुछ तो सिखलाते हो तुम दुनियादारी का सबब
यूँ ही नहीं मिलकर तुमसे कुछ तेरे तलबदार हो गए।
कहते हैं के अदब में अदावत नहीं होती है 'अमर'
अदावत की हुनर में तो अब तुम भी समझदार हो गए।
6.
गफलत में है जमाना
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शबनम की ओट में हैं वो शोले गिरा रहे
गफलत में है जमाना जो महबूब समझ रहे।
नफ़ासत से झुकते हैं वो क़त्ल के लिये
मासूमियत ये आपकी के सजदा बता रहे।
परोसते फरेब हैं डूबो-डूबो के चाशनी में
कातिल भी आज खुद को मसीहा बता रहे।
वो कुदरत को बचाते दरख्तों को काटकर
जंगलात उजाड़ते और झाड़ियां सींचते रहे।
लो खैरात बांटते हैं रोज हमीं को लूटकर
लुटकर भी बेखुदी में हम जश्न मनाते रहे।
रहबरी का गुमां है तुझे तू तो मगरूर भी 'अमर'
पड़ गए सब पसोपेश में, तेरा गुरूर देखते रहे।
7.
तेरे आने की ही आहट से
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तेरे आने की ही आहट से, मौसम का बदल जाना
परिन्दों का चहकना, या कलियों का मुस्कुराना।
कल के फ़ासले मिटाकर, अब गुफ़्तगू भी करना
नज्में भी उनका सुनना और ना नज़रें ही चुराना।
बोलती हुई सी आँखों से, हँस-हँस के ये बताना
अल्फाज भर नहीं, ना तुम बीता हुआ फसाना।
मत कर गिला ज़फा का, फिर बदला दौरे-जमाना
आओ कल की बात बिसरें, और गाएँ नया तराना।
पढ़ लेते हैं हाले-दिल जो, चेहरे की सिलवटों से ही
सीने के जख्म सीकर भी, तुम यूँ मुस्कराते रहना।
दिलों की बातें सुनना दिल से ही बातें करना 'अमर'
दिमागदारों की बस्ती में बस दिल को बचाए रखना।
8.
सच कहने का मलाल कब तक करोगे
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ठहरो नहीं ऐ जिन्दगी तुम कभी, सरकती सही चलकर तो देखो।
बदली इबारत हर्फ़ को पढ़ो, बदलने का हुनर सीखकर तो देखो।
रंग व गुलाल में डूबा जमाना, कुछ देर तुम भी थिरककर तो देखो।
रकीब भी हबीब से मिलेंगे यहाँ, बस जरा तुम मुस्कुराकर तो देखो।
दिखते नशे में ये झूमते से लोग, करीब आप उनके जाकर तो देखो।
धुआँ ही धुआँ चिलमनों के पीछे, बहकते दिलों को छूकर तो देखो।
सच का मलाल कबतक करोगे, थकन से अगन को जलाकर तो देखो।
जमाना जल रहा सियासी-अदावत, नफ़रतो की लपटें बुझाकर तो देखो।
होली की फिजा है आती ही रहेगी, अपनी उम्मीदें सजाकर तो देखो।
शराबी आँखों में रूहानी सुकू है, खामोश निगाहें उठाकर तो देखो।
अगले बरस भी तकती रहेंगी, दिलों में मुहब्बत कुछ बचाकर तो देखो।
ता-उम्र संभलने की कोशिश क्यों, 'अमर' एक बार फिसलकर तो देखो।
9.
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा है
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नक़ाबपोशी की जरुरत किसे है यहाँ खुला खेल है दांव आजमाते हैं लोग
लम्हों में हबीब, लमहों में रकीब बड़ी फख्र से फितरत दिखाते हैं लोग।
बर्बादियों का जश्न आज जोरों पे है अपनी ही बेहयाई पे खिलखिलाते हैं लोग
जलजला आ रहा है चीखो-पुकार पर जश्ने-मस्ती में डूबे अजाने हैं लोग।
इंकलाबी नारों की रस्मी रवायत भी गूंजती फिजा में रोज लगाते हैं लोग
मादरे-वतन पे मिटने की कसमें भी अजान की तरह रोज सुनाते हैं लोग।
बेमानी आज करना बातें सुकूँ का ग़ज़ल क्यों कहे है हकीकत बयानी
आज तुमपे नज़र है कल सबपे पड़ेगी खुद से ही आज बेखबर हैं लोग।
बदल दूंगा आलम जुल्मते-सितम का घरों में दुबक कर बताते हैं लोग
बदला निज़ाम अब खाँसना मना है रुह काँप जाती सब जानते हैं लोग।
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा आँखों में किसके कितना पानी बचा
किसकी रगों का खूँ उबलने लगा है 'अमर' वाकया सब जानते हैं लोग।
10.
रुसवाइयों का जश्न
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दर्द के प्याले मेरे नसीब में भी कुछ कम न थे
दीगर थी बात कि, मैं पीता भी रहा मुस्कुराता भी रहा।
अब कैसे कहें के फख्र था जिसकी यारी पे मुझे
वही तबीयत से रोज-रोज, दिल मेरा रुलाता भी रहा।
हैरान हूँ आप की इस मासूमियत पे ए दोस्त
मेरा साथ नागवार पे, औरों की महफ़िल सजाता रहा।
मेरे शिकवे को इस कदर थाम रक्खा है आपने
ये न देखा के हजारों जख्म, मैं खुदी से सहलाता रहा।
क्यों तन्हा मुझे देख अब नजरें चुराते हुजूर
रुसवाइयों का जश्न यूँ ही, मैं रोज-रोज मनाता रहा।
जरूरत थी बेइन्तिहा जिसकी तुझे ए 'अमर',
वो ही आज तुमसे, फासले का मीनार बनाता रहा।
11.
अब मुझे देखने लगे लोग
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तमन्ना-ए-लबे-जाम दीवानगी मेरी अब मुझे देखने लगे लोग
ये शोखी नफासत सलासत तिरा मुतास्सिर होने लगे लोग।
दीदार कर खुमारे-जिस्मे-नाजुक मिट गया शिद्दते-शौक मेरा
खिरमने-दिल का शरीके-हाल मुझसे ही अब कहने लगे लोग।
फिर आरजू शबे-वस्ल की नवा-ए-ज़िगर खराश कहाँ
मैकदे में तनहाई व साकी-ए-शबाब में डूबने लगे लोग
अजीब रवायत तेरे निजाम की रींद भी चश्मदीद बन गए
पेशे-दस्ती-ए-बोसां को दौलत से अक्सर तौलने लगे लोग।
आतिशे-दोजख का क्या हकीके-इश्क सा जुनूं बढ़ गया 'अमर'
चूम लूं गुले-रंगे-रुखसार हया क्या अब सब जानने लगे लोग।
12.
आपको देखा किया है हमने
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हसरत भरी निगाहों से आपको देखा किया है हमने
अहले-करम हैं आपके जिनपे, उसने भी हाय यों कभी देखा होता।
ब-रु-ए कार खड़ा कोई मजनूं वहां नहीं फिर भी साहिब
पैकरे-तस्वीर की मानिन्द दिल में उसने, आपको जों रक्खा होता।
जौके-वस्ल से हरदम आपने दिया किया है जिस्त का मजा लेकिन
महरुम-ए-किस्मत पुरकरी छोड, उसने सादगी जों जाना होता।
ज़ियां-वो-सूद की फिकर में भटकता दूदे-चरागे महफिल की तरह
चरागे-शम्मा में मुज़्मर रूहे-वफा को, कभी तो उसने परखा होता।
नासमझ कहे दुनिया तो क्या चूम लूं राहे-फना भी 'अमर'
सोजे-निहां जल रहा है काश, तुझे भी उसने कभी समझा होता।
13.
गजब की तूने दोस्ती निभाई है
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ऐ दोस्त क्या गजब की तूने दोस्ती निभाई है
के दोस्ती भी आज एक रफ़िक से शरमाई है।
मोहब्बत में अदावत अब कोई सीखे तुमसे
तेरी तासीर ही जुल्मते-जहराव और बेवफाई है।
सब रिन्द हैं यहाँ कौन देखे दर्दे-निहाँ किसी का
इस महफ़िल में तो सिर्फ अफसुर्दगी गहराई है।
दिल की खिलवतों में मस्तूर थी शोखे-तमन्ना
अब ये सोजे-जिगर भी तेरे तोहफे की रूसवाई है।
है दिल्ली की दुनिया में दिल महज एक खिलौना
'अमर' कहां यहाँ ज़ज्बात और कहां यहाँ पुरवाई है।
14.
सब दिन याद रक्खें
.................................
वो आपने दी सीख जो के सब दिन याद रक्खें
फिर जिंदगी ने लीं करवटें सब दिन याद रक्खें।
चाँद छूने की ख़्वाहिश थी बादलों को चीरकर
मिल गया चाँद जा बादलों से सब दिन याद रक्खें।
फिक्र थी कब दुश्मनों की पर आज बेरुख आप हैं
बेरुखी भी तो आपकी सब दिन याद रक्खें।
ये वक्त ना ठंढ़े बदन या दिल के शोले-इश्क़ का
शबनम सी हँसी दे दीजिये सब दिन याद रक्खें।
यूँ तो अपनी बेखुदी पर हँसता है रोज 'अमर'
अब आप ऐसे हँस दिए के सब दिन याद रक्खें।
15.
अहबाबे-दस्तूर
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इस शहर में अहबाबे-दस्तूर निराली है
रफीक-बावले की कदम-कदम पे रुस्वाई है।
राहे-हस्ती का हमराज बनाया था आपने ही
निभाई ना गई तो अब ये इल्जामे-बेवफाई है।
मस्तूर थी तमन्ना-ए-शोख दिल की खिलवतों में
तोहफा तिरा भी दोस्त क्या सोजे-ज़िगर है।
सुन सुकुत की सदाएं देख दर्दे-निहां हमारा
ये बेरुखी भी आपकी मैने दिल से लगाई है।
दिल की दुनिया में मत पूछ 'अमर' कीमत अपनी
आबे-फिरदौस छोड़ा तूने रस्मे-दोस्ती निभाई है।
16.
गम संभाल रक्खें
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महफिल में गुरेजा किया आपने के सब दिन याद रक्खें
नहीं दी मुहब्बत तो क्या निशाते-कोहे-गम संभाल रक्खें।
मौजे-खिरामे-यार की कशिश हश्र तलक याद रक्खें
ये कस्दे-गुरेज भी आपकी है के सब दिन याद रक्खें।
तलातुम से घिरा तिशना हूँ इजहारे-हाल छिपाए रक्खें
कशाने इश्क़ हूँ तो फरियाद क्यों पासे-दर्द याद रक्खें।
रफू-ए-जख्म ना अब देख चश्मे फुसूंगर याद रक्खें
शबे-हिजराँ की तमन्ना में ऐशे-बेताबी याद रक्खें।
आसा तो नहीं यूं ख़ुद की बेखुदी पे हँसना 'अमर'
मगर आप मुहाल हँसे सारे-बज़्म के सब दिन याद रक्खें।
17.
दिल पारा-पारा हुआ
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क्या हुआ जो पायी तेरे दर पे रुसवाई हमने
दिल पारा-पारा हुआ पर रस्मे-अहबाब तो निभाई हमने।
दस्तूर है ये न देख दिले-बहशी की जानिब
इश्क़ की इंतहां का यही सुरूर इसे दिल से लगाई हमने।
जिगर जला-जला करके मिटाता रहा वजूदे-हस्ती
वैसे भी दो पल के लिए तेरी बाहों की तमन्ना जगाई हमने।
गुंचों से मुहब्बत की है तो खारों की परवाह न कर
सीने से लगा अब परहेज नहीं इश्क़ की रीत बताई हमने।
एतमादे-नजर ही नहीं सीरत भी देख कहते वो 'अमर'
पशेमान हूँ क्या कहूँ सूरते-हुश्न से नजर अभी हटाई हमने।
18.
बेरुह मशीनों सी चल रही है जिंदगी
.........................................................
क्या बेरुह मशीनों सी चल रही है ज़िन्दगी तेरी
या ता-उम्र बे-ठौर ही भगती रहेगी जिंदगी तेरी
ये मकान ये दुकान रिश्तेदारियाँ ठीक हैं लेकिन
कुछ लमहात तो चुरा संवर जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
हाँ रब ने तो नवाजा है फ़ने-आशआर से तुमको
महफिलों को रंग दे खिल जाएगी ज़िन्दगी तेरी
माना कि तेरे हुश्न के क़द्रदान बहुत होंगे मगर
इल्म की कदर कर बदल जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
मंजिले-मक़सूद मिलता नहीं कौनेने-गलेमर की सिम्त
ये इज़ारे-सुख़न है 'अमर' यूँ छूट जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
19.
नादानी होगी
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खुद के जज़्बात को ना समझाआपकी ही नादानी होगी
मअरकां-ए-जां ने नाशाद किया ये भी गलतबयानी होगी
संगे-मोती की परख तो मुझे भी कुछ कम न रही हुजूर
ज़ुदा ये बात कुछ सुर्ख-रु-आरिजों की रही मनमानी होगी।
होती शर्ते-वफा नहीं रिश्ता-ए-खूं की भी मेरे रहनुमा
हमराज़ कहो तो हर्फे-अल्फ़ाज को पढ़नी बेजुबानी होगी
इतमीनान रख यूं जिगर होता नहीं किसी का चाक-चाक
बस कोहे-गम की फ़ितरत गम-ख्वार को समझानी होगी।
गर चीख-चीखकर करूँ बयां तो भी क्या होगा 'अमर'
अब भीड़-ए-तमाशाई बनना चौराहे-आम बेमानी होगी।
20.
जब से मेरी ज़िन्दगी में आप आ गए
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जब से हुज़ूर मेरी ज़िन्दगी में आप आ गए
ज़िन्दगी ने अपने पते-ठिकाने बदल लिए।
पता न था कि आप मेरी मंजिल थे मगर
गुसले-मौजे-हयात के कायदे सीखा दिए।
पहिले तो मैं बेफिक्र था बेख़ुद भी था जनाब
तारक़-ए-दुनियाँ से अब मुतबिर बना दिए।
फ़ज़ाओं के साथ भटकती थी मेरी रुह भी कभी
बीत चुके अब वो बेदरे-वक्त आप सब सह गए।
शुक्रिया कहूँगा नहीं ये इक एहसास है 'अमर'
देख लीजिये आप आज हम आपके ही रह गए।
21.
हमारी आँखों में आओ तो
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आँखों में आओ तो बाताएँ तेरी खता क्या है
शोख-हसीनों को रोज सताने की अदा क्या है।
फरिश्ता नहीं दीवाना हूँ यही रहने दो मुझे
बेकरारियों से पूछो कि लुत्फ़े-आशिक़ी क्या है।
महकते हुए अंफ़ास व लरजते हुए अल्फ़ाज़ तेरे
सिरफ़ हमीं जानते हैं कि तेरे आलमे-हुश्न क्या है।
बार-बार जख्मे-ज़िगर ने किया है ख़ुश्क ज़िंदगी
निगाहें आज भी तकती हैं के इशारे-बुलबुल क्या है।
कैसे भूल जाऊँ लहजा-ए-तरन्नुम की गुफ्तगू 'अमर'
ब-हर-तौर वकीफ़े-राज तू खुदा-रा और रक्खा क्या है।
22.
दास्ताँ-ए-जांकनी
.............................
पासबां के कफ़स में गुम-गुस्ता अदम तू
सुन के दास्ताँ-ए-जांकनी चश्म तर हो गया।
सिर्फ हमीं थे शाहिद उलफते-बहम के
मशीयते-फ़ितरत ये अब मुश्तहर हो गया।
ताबिशे-छुअन तेरी नर्मगी हथेलियों की
क़ल्ब में खुशरंग मदहोशियाँ भर गया।
दम-ब-खुद तेरे घर से हम वापिस हुये थे
बिलयकीं फ़र्ते-उल्फ़ते पे आयां हो गया।
अफकार नहीं अब तजलील की 'अमर'
संगमरमरी जिस्म तिरा रूह में ढल गया।
23.
उन हसीन लम्हों ने
.................................
क्या जादू किया हसीन लम्हों ने सदा आ रही आज आपके लिए
दिल मुर्दा पड़ा था फिर धड़कने लगा आज आपके लिए।
आपके पहलू में हूँ क़ज़ा आए फ़िलवक्त कोई गम नहीं
बयां हो रहे ये अब हसीन खयालात सिरफ आपके लिए।
हवाओं के साथ उड़ना व अंगुलियों की छुअन भी ताजी है
शबे-फुरकत ढली आरजू-ए-मुहब्बत आज आपके लिए।
भड़कते जज़्बात ढलकते अंदाज व लरज़ते अल्फ़ाज़ मेरे
जज़्बा-ए-दिल औ मशरुफ़ मन है सिरफ आपके लिए।
फिर आप रुसवा न होंगे जमाने में कभी अब 'अमर'
जर्रा-जर्रा हलाल मजहबे-इश्के-पयाम है ये आपके लिए।
24.
दिल के करीब कोई और है
......................................
तू शरीके-हयात किसी और की मुझे है ये खबर ऐ गुल-बदन
तेरे दिल के करीब कोई और है जिसे सौप दिया तूने जां-ओ-तन।
कर हदें दिल की पार रूह छूने लगी अब तेरे देह की महक
परवाह किसकी खुदाई में अब हो रहा मुकद्दर आजमाने का मन।
दबे होठों सही पयामे-मुहब्बत को आपने भी तो तस्लीम की है
छिन रहा है करार अब चिंगारियों से ही सुलगने लगा मेरा तन।
चुप है जुबा देर से हुजूर आप निगाहों को भी अब सुना कीजिए
मुहब्बत बन गयी जिन्दगी अब मेरी दिल में फूंका का जो है तूने अगन।
डूबा अगर दरिया-ए-इश्क में कयामत का इंतजार किसे है 'अमर'
बर्बादियो का सबब लोग पूछेंगे उनसे जिनमें है मन मेरा मगन।
25.
दीवानों की तरह
........................
सूरते-दीदार दिल तो में ही रह गया यरब
पर लोग देखने लगे मुझे दीवानों की तरह।
मुकर्रर किया वक्त आप ने ही गर याद हो
आपके बिना भीड़ लगी बयाबानों की तरह।
दूंदे-सीगार ही हमदम था मेरी तन्हाइयों का
जले दिल को ही जलता रहा शायर की तरह।
नजरे-गुरेज किया हर पहचाने चेहरे से
घूरते रहे लोग हमें अजनबी की तरह।
कल की गुफ्तगू की तासीर बाकी थी 'अमर'
जमीन से चिपके रहे हम एक बुत की तरह।
26.
उदास दरख्तों के साये में
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खामोश वादियों की खामोशी का सफर
उदास दरख्तों के साये में सहमी डगर।
परिन्दे भी चुप मेरी तन्हाईयों के गवाह
हुआ करता कभी यहीं हमारा भी घर।
गुजारी है हमने यहाँ महकती हुई शाम
कैसे घुल गया अब इस फिजा में जहर।
बेनूर दिख रही आज हर कली यहाँ की
उजड़ा चमन लगी इसे किसकी नज़र।
बदली नियत बागबां जो बन गए ‘अमर’
ऐ सियासत तुझे इसकी क्या कोई खबर।
27.
गुलों की बहार
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गुल को देखें कि देखें चमन में इन गुलों की बहार
मुद्दतों किया है हमने भी इन लमहों का इन्तजार।
दिलकश अन्दाज और कहर ढाती सी नीयत उनकी
मासूमियत से वो गिराती रही हैं हर सब्र की दीवार।
महकती हुई साँसें और लरजते हुए से होठ उनके
चाँदनी बदन की खनक करती है सबको बेकरार।
कत्ल करती शोखियों का चल रहा है ये सिलसिला
भड़के हुए जज्बात को तन्हा मुलाकात की दरकार।
वो खुदा का नूर 'अमर' अब, लुटने का किसे होश यहाँ
इश्क-ए-रूहानी कायनात अपलक करता रहा दीदार।
28.
ऐ जिन्दगी
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चहक-चहक कर जीना है तुझे ऐ जिन्दगी जी भरकर
छक-छक कर पीना रस तेरा ऐ जिन्दगी जी भरकर।
पास आ रही मौत को भी आज ही कह दिया है मैनें
लौट जा यहाँ से तुम फासले बना अभी दूर रहकर।
अभी तक तो है बसेरा चाहने वाले दिलों में ही मेरा
अनगिनत हाथ खड़े हैं आज दुआ में कवच बनकर।
पुतलियों की कोर से यूँ जब कभी छलक जाते आँसू
चूम लेते हैं वो उन्मत्त होठ झट से उन्हें आगे बढ़कर।
मौत से मिलन की वो घड़ी जब कभी आएगी 'अमर'
सीने से लगा लेंगे उसे लिपट जाएंगे तब बाहें भरकर।
29.
चराग जलाकर आया हूँ
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लम्बी स्याह रात में इक चराग जलाकर आया हूँ
मौत के आगोश से जिन्दगी को छीनकर लाया हूँ।
विवश-बेचैन हो जो उमड़े थे मजबूरियों के आँसू
प्यार की जुम्बिशों से आज उन्हें सोख आया हूँ।
चलो चलें गांव अपने अभी जिन्दगी जिन्दा है वहाँ
कई बरस पहले जहाँ कुछ शरारतें छोड़ आया हूँ।
दिखाया न तुमको कभी दरकती छत की टपकती बूंदें
लेकिन खिलती है जिन्दगी यहाँ ये राज बताने आया हूँ।
कोहरा घना है माना पर 'अमर' नहीं छिपता उजाला
बादलों को चीर निकलता आफताब देखने आया हूँ।
30.
दिल खोलकर मिले
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दिल खोलकर मिले थे मिलके बातें बहुत की
कुछ हाल-हाल की बातें कुछ बीते दिनों की।
सियासत किसी को तो रास आती नहीं थी
तो बातें दुनियादारी की बातें जिम्मेदारी की।
दिल के चिथडों को सफाई से छुपाया था सबने
झूठी खुशियाँ जताने को सबने बातें बहुत की।
उम्र भर संजोकर सबने रखी थी जतन से
कभी फुर्सत से होगी सबसे गुफ्तगू दिलों की।
फुर्सत किसे आज 'अमर' दिल की बातें सुने कौन
सिमटी है जिन्दगी खुद में ये फितरत जमाने की।
31.
सुबह का ये सूरज
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सुबह का ये सूरज तुम्हारे लिए है
सुबह का ये सूरज हमारे लिए है।
उदासियों की शामें बीती कहानी है
सुहाना सफर आज हमारे लिए है।
झूमती पवन संग कूक रही कोयल
रुत भी गा रही गीत हमारे लिए है।
रहनुमा ही वतन के लुटेरे बन गए
चमन की गुहार ये हमारे लिए है।
जमीं सुर्ख आज 'अमर' अपनों के खूँ से
कुर्बानियों की सदाऐं अब हमारे लिए है।
32.
भुलावे में रहा करते हैं
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हमें तिनका समझकर अक्सर वो भुलावे में रहा करते हैं
"पठार का धीरज" के माने भी कुछ लोग नहीं जाना करते हैं।
गुमां बहुत है उनको बहती हुई दरिया को बाँध लेने का
उन्हें क्या पता समन्दरों के तूफान मेरे सीने में पला करते हैं।
खून का ईंधन जलाकर लोगों को मंजिल तक पहुँचाने वाले
अंधे-विकास की आँधियों के दौर में भी भटका नहीं करते हैं।
उनके नखरे मुद्दतों से बेबशी में उठाते चले आ रहे हैं लोग
याद रख गाड़ी के पहिये कभी दलदलों में नहीं चला करते हैं।
एक दीया ही काफी है 'अमर' अंधेरों को भगाने के लिए
मेरे आँगन में रोज सुबह-शाम सूरज और चाँद आया करते हैं ।
33.
दर्द हुआा करता है
________________
बेतहाशा बदहवास बेसुध भागते हो तो रश्क नहीं दर्द हुआ करता है
अच्छी तरह वाकिफ हूँ कि लड़खड़ाने से सिर्फ हादसा हुआ करता है।
दिल की गहराईयों से बंद आँखों में झांककर कुछ टटोलो तो सही
मन की आँखों का रिश्ता अक्सर दर्दे-दिल से जुड़ा हुआ करता है।
सिर्फ हवादिशें नहीं थी वह खुद खुदा का ऐतबार भी था मुझपर
जज्बा-ए-जुनूं-ए-कायनात उसका मुझसे ही तो उजागर हुआ करता है ।
जल जंगल जमीन की दौलत से लाख तिजोरी भरते रहो उनकी लेकिन
कोयला दबकर कभी कोहिनूर तो दहककर कभी अंगार हुआ करता है।
जख्मे-जिस्म भूलकर जमाने भर का जहर रोज तुम पीते रहो 'अमर'
हयाते-दहर को बचाकर ही कोई युगों-युगों से नीलकंठ हुआ करता है ।
34.
तो कोई बात बने
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जम्हूरियत के उजाले फिर से दिखालाओ तो कोई बात बने
जहर बुझी मीठी छूरी की चिता सजाओ तो कोई बात बने।
फतह की धूल उड़ाते रहे लहराती शमशीर के बल लोग
सहमे हुए दिलों को जीत के दिखाओ तो कोई बात बने।
फ़रेबी-कंधों के सहारे चलती है नफ़रतों की सियासत
तुम आदमी बनकर भी कभी आओ तो कोई बात बने।
चक्की की तरह पिसती खुद को घिसती रही जो ता-उम्र
हँसती हुई माँ की तरह अश्क छिपाओ तो कोई बात बने।
मुर्दा तवारीख अटी पड़ी है कत्लो-गारद के फ़सानों से 'अमर'
अबके सावन मुहब्बतों के गुल भी खिलाओ तो कोई बात बने।
35.
कातिल तेरी अदाएँ
......................
कातिल तेरी अदाएँ शातिर तिरा मुस्कुराना
पहलू में छिपा खंजर दिल से दिल मिलाना।
मिजाज कुछ शहर का कुछ असर तुम्हारा
खुशी मिली मुझे भी के मौजूं मेरा फसाना।
फितरत तेरी समझकर सभी हँस रहे अब
मिलकर तेरा हमीं से यूँ हाले-दिल सुनाना।
सबको खबर हुई मुश्किल में आज तुम भी
फिर करीब आने का खोजते नया बहाना।
खुदा की ईनायत 'अमर' ईमान तेरा गवाह
जख्म भरे तो नहीं पर गैरों को मत रुलाना।
36.
इक ठहरी हुई सर्द शाम
................................
इस गुलाबी शहर की थी वो इक ठहरी हुई सर्द शाम
दिल की पाती से जुड़ा था शबनम सा तेरा नाम।
थम सा गया था वक्त यारो ये रुत भी मुस्कुराने लगी
खनककर चूडियाँ दे रहीं थीं प्यार का पैगाम।
जिन्दगी ले चुकी थी करवटें पर पतंगा मिटता ही रहा
इश्क में ता-उम्र शम्मा धू-धू जलती रही गुमनाम।
कैसे निकाले बूँद मकरंद की बिखरे हुए परागों से कोई
मोहब्बत फसाना बन धुआँ होती रही सरे आम।
मिटा न सकी गर्द गुजरे जमाने की 'अमर' बहकती यादें
लटकते गजरों को महकती सांसों का ये सलाम।
37.
जिन्दगी के क्या कहिए
...............................
टुकड़ों में बँटती है रोज लुटती सी इस जिन्दगी के क्या कहिए
सच को सौदा बना रहे हैं लोग जहाँ ऐसे डेरों के क्या कहिए।
शिद्दत से तो पूछे कोई उनसे महकती हुई इस शोहरत का राज
मुंसिफ ने सुनाया हुक्म जब फिर उसकी रंगत के क्या कहिए।
खुदा से कमतर क्यों समझे कोई जों पास हो दरिन्दों की फौज
मासूमों पे कहर बरपाते हुऐ शैतानों की नीयत के क्या कहिए।
फरिश्ता कहते हो तुम उसको जो करता इन्सानियत का खून
सजदा करे चौखट पे हाकिम तो हालाते-मुल्क के क्या कहिए।
बिरहमन को गरियाने के रस्मी रिवाज से क्या होगा 'अमर'
धर्म की धज्जियाँ जो उड़ाते हैं उन हुक्मरानों से क्या कहिए।
38.
धरम का धंधा है फिर ऊफान पर
..........................................
धरम का धंधा है फिर ऊफान पर खूब बिकते देखा है
शुक्रिया भक्तो राक्षसों को भी भगवान बनते देखा है।
वक्त का फैसला भला कौन टाल सका आज तलक
पुजारियों की औलाद को भी दरबान बनते देखा है।
प्यार का गुलिस्ताँ भी अब मैदाने-जंग बनने लगा
फूलों को अपने आँगन में धू-धूकर जलते देखा है।
इंकलाब की कश्ती पर चढ़के जो हुक्मरान बन गए
सरे आम उनको जातियों का सरदार बनते देखा है।
अँधेरों को चीरकर जो जहां रौशन करते रहे 'अमर'
सच के लिए उनको मीरा वो सुकरात बनते देखा है।
39.
सितारे खूब मुस्कुराने लगे
...............................
थका सा आफताब देख सितारे खूब मुस्कुराने लगे।
अँधेरी रात की वो तूफानी हवा साये भी डराने लगे।
दिन के उजाले में जो रोज छिपते रहे ऊल्लू की तरह
अँधेरे में जुगनू बनकर वो हर तरफ टिमटिमाने लगे।
कोहरे ने ढक लिया जैसे भोर की चढ़ रही ललाई को
विवश बेचैन हो परिन्दे भी फिर कोहराम मचाने लगे।
किसी ने देखा ही नहीं मजबूर उन आँखों की कसक
बावले हो गए लोग जो जीत का परचम लहराने लगे।
बाज आए नहीं आज भी 'अमर' फतवा ही सुनाते रहे
पर संभलना जरा तुम वो प्यार फिर अब जताने लगे।
40.
फ़िक्र साझी विरासत की
.................................
फिक्र साझी विरासत की थी सब रंजो-गम हम भुलाते रहे
दी गैरों को हँसी बेफिक्र और अपनों को हम रूलाते रहे।
वो दिल के करीब था न था अब क्या बताऐँ राज सबको
पता ना था के खुद के हाथों चरागे-बज्म हम बुझाते रहे।
बार-बार छलकता तो रहा सब्र का पैमाना ऐ नूरे-हयात
मगर बेचैन दिल से हर हाल आपको ही हम बुलाते रहे।
आसां नहीं था जज्ब करना सहमी हुई सी इक मजबूर हँसी
सबको है पता अस्मत खुद की ही रोज-रोज हम लुटाते रहे।
मुर्दों को सुकूँ वहाँ भी न था जमीं-आसमां मिल रहे थे जहाँ
बेखौफ़ "अमर" खूँ के छींटे तेरे निज़ाम में यूँ हम उड़ाते रहे।
41.
शोर ही सफलता का पैमाना बन गया
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शोर ही सफलता का पैमाना बन गया
दहकता हुआ अंगार भी धुआँ बन गया।
वक्त के निशाने पे बेखौफ चल रहा था
कल था जो शूरमा अब तारीख बन गया।
हैरतअंगेज थी रंगते-काफिले-शानो-शौकत
बहकती हवा में जिस्म का मकां बना गया।
कौन कह रहा है के हो गई मुकम्मल फतह
दुबककर खड़ा था जो अब ढाल बन गया।
जमीं से आसमां तलक शोर जश्न का ऐसा
आँधी-गर्द-गुबार ही 'अमर' अश्क़ बन गया।
42.
निराला है ये जिंदगी का सफर
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निराला है ये जिन्दगी का सफर
नहीं तन्हा रही कभी इसकी डगर।
हुई बातें बहुत ही हालाते-मुल्क की
भक्ति-वफादारी बन गई अब जहर।
चिल्ल-पौं मची आज चारों तरफ है
शोलों पर चलो तो कुछ होवे असर।
मुकद्दस जमीं जब वतन की पुकारे
जवानी को कैसे कोई रक्खे बेखबर।
लहराई थी बेशक उम्मीदों की पौध भी
पर बातों से बदली ना तकदीर ‘अमर’।
43.
तुम्हारी ही धड़कनों के साथ धड़कती है
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तुम्हारी ही धड़कनों के साथ धड़कती पूरी कायनात
तुम्हीं हो जो महका करती खुदाई में खुशबू सी सारी रात।
हवादिसें भी हारकर फ़ना राहे-जिंदगी से हुई
हसीन उल्फते-तखय्युल में हमने गुजारी सारी रात।
मखमली लिबास में उतरी वो सुर्ख-सफेदी सी हया
पलकों में छिपी चश्मे-तसव्वुर कटी आँखों में सारी रात।
रिश्ते मासूम-दिलों के जुड़ते रहे जिस चमन में कभी
हमसफर-महबूब कहाँ है वहाँ अब फैली सूनी सारी रात।
उम्र भर तकते ही रहे “अमर” पाकीज़ा कदमों के निशाँ
बेखुदी में बुदबुदाते गए रिन्दानों की तरह सारी-सारी रात।
44.
इठलाती नदी में भी छटपटाहट देखी हमने
-----------------------------------------------------
इठलाती नदी में भी छटपटाहट देखी हमने
बदलते हुए गाँव की शाम में अकुलाहट देखी हमने।
चाँद छूने के अरमान पाल रक्खे थे लेकिन
युवा दिलों में बेरोजगारी की छटपटाहट देखी हमने।
कल थे तीसमार आज पिट गए सरे-आम
चुप्पी की हँसी में भी खिलखिलाहट देखी हमने।
बर्फ का पहाड़ खड़ा था रिश्तों के दरमियाँ
साँसें टकराई तो धड़कनों में गरमाहट देखी हमने।
लोग वही पुराने लेकिन रवायत नई "अमर"
पुरवाई हवा में अब फिर से सरसराहट देखी हमने।
45.
दिखा नहीं गाँव
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बहुत देखा बहुत खोजा पर दिखा नहीं गाँव
मकाँ वो दरख्त बहुत पे दिखती नहीं छाँव।
पगडंडियाँ खो गई कहीं रास्तों की भीड़ में
दिन-रात हम चले लेकिन मिली नहीं ठाँव।
थी चाहत चाँद छूने की और मन बेलगाम
बहकती फज़ाओं में रिन्दानों के पड़े पाँव।
बाजीगरी के जलवे उन हवाओं में तैरते थे
चुपचाप खेलता था हर शख्स कोई दाँव।
सब चीखने लगे हँसते हुए अचानक "अमर"
रोक-टोक नहीं किसी अजूबे सफर पे गाँव।
46.
जाँ नहीं गोस्त ही दिखलाई दिया मुझको
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जाँ नहीं गोस्त ही दिखलाई दिया मुझको
सबने यूँ तो दीन की तरह जिया मुझको।
बेजुबान मैं भी नहीं पर उस हवस का क्या
अजाने कई सायों ने दबोच लिया मुझको।
मिमियाती हुई आवाज जो निकली थी मेरी
जयघोष के कफन में लिपटा दिया मुझको।
भगवान मजहबी इन्सान से जो पड़ा पाला
तेरे नाम पर ही सबने बलि किया मुझको।
गर्दनें सभी कटतीं रहीं सामने ही "अमर"
फब्बारा-ए-खूं ने संगदिल किया मुझको।
47.
जुबां चुप निगाहें बोलती हैं
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जुबां चुप निगाहें बोलती हैं देखकर कुछ सुना कीजिए
खामोशियाँ ही ताकत बन गई है दिल से दुआ दीजिए।
वीरान से ग़ोशों को गज़रों से महकाया है आपने ही
गुलिस्ताँ में उमंगों के फूल अब फिर खिला दीजिए।
श़िद्दत से जोड़ा शीशा-ए-दिल महताब़े-पूनम ने बार-बार
दौड़ने लगी है ज़िंदगी फिर से खुशियों की सदा दीजिए।
मुहब्बतों में हसरतों की ताबीर हम खुद बन गए हैं
सुकूँ रुख़सत हो रहा है मासूम पे दिल लुटा दीजिए।
भाग ही जाती हैं आखिर हवादिसें जिंदगी से “अमर”
ता-उम्र लड़ने की मशाल एक बार बस जला दीजिए।
48.
मौसमे-गुल को भी ऊल्फ़त सिखलाई हमने
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मौसमे-गुल को भी ऊल्फत सिखलाई हमने
सुर्ख-रु आरिज़ों की आरज़ू जतलाई हमने।
बेरूह गिला करना अब ज़ुल्मते-जहराव की
बलानोश बन गया अफ़सुर्दगी बचाई हमने।
खूँ-ए-सवाल खंद-ए-दिल याद आते ही रहे
ऐज़ाजे-मसीहा तलक बात पहुँचाई हमने।
तीन-तेरह के हिसाब में उलझी रही जिंदगी
सदा-ए-मुफ़सिली तुमसे ना बतलाई हमने।
हर बार आता नहीं दहर में अज़ल चुपचाप "अमर"
अँधेरों में शम्मा चलकर आई रंगत दिखलाई हमने।
49.
नज़रें मुस्कुराकर चुराने लगे
------------------------------------
तन्हाईयों में आपसे नजरें मुस्कुराकर चुराने लगे लोग
रुसवाइयों का जश्न सरे-ब़ज्म बेफिक्र मनाने लगे लोग।
अब तो ले आ फिर पैमाने-वफा ता-ब-लब ऐ नूरे-हयात
अहदे-वफा यूँ सहरो-शाम सज़दा कर जताने लगे लोग।
चन्द लमहात की गुफ्त़गू से मचल गया जो दिल मिरा
अफ़सोस गेसूओं को अदा से फिर लहराने लगे लोग।
बावला है दिल गहराईयों में डूबकर देखो ऐ तबस्सुम
इश्क-इंतहा तेरे रूह की परछाईं है बताने लगे लोग।
किसी फरियाद का हक़ ड्यौढ़ी पर नहीं हुजूर
उल्फ़ते-आशिकी है "अमर" खुद को ही लुटाने लगे लोग
50.
मत कर गिला जफा का
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मत कर गिला ज़फा का बदला फिर दौरे-जमाना
कल की बात बिसरें हम अब गाएँ नया तराना।
पल-पल रंग बदलते किसी गिरगिट की फिक्र मत कर
सयाने संग मासूम भी यहाँ मन में हरदम ये बसाना।
कुदरत की बात करते हर रोज दरख्तों को काटकर
जंगलात उजाड़ उनको है सींची झाड़ियां दिखाना।
कुछ तो पता है हमको भी फितरते-हुकूमत की रंगत
कल शागिर्द रहे जो हमारे आज तुमसे वफा जताना।
वाकिफ हैं आप भी तो मेरी तबीयत से मेरे हाकिम
कोहे-गम में 'अमर' अक्सर पासे-हयात ढूंढ लाना।
51.
छलांग लगाकर तो देखो
.................................
उफनती नदी मटमैली बाढ़ है धार में छलांग लगाकर तो देखो
तासीर जवानी की बंद हैं आँखेँ अँधेरी सुरंग जाकर तो देखो।
ज़िन्दगी की जंग जीतने का ज़ज्बा अब रूमानी कहानी नहीं
आभासी दुनिया में भी खुशी है अपनों को ढूँढकर तो देखो।
नौजवानों के कंधों पर है हालाते-मुल्क बदलने का ज़िम्मा भी
बहकाया जो करते चेहरे उन्हें गौर से तुम पहचानकर तो देखो।
खामोश निगाहें भी बोली शराबी आँखों में तैरता रूहानी सुकूँ
बदली फिजा है उम्मीदों को तुमभी फिर से सजाकर तो देखो।
जलजला आ रहा मची चीखो-पुकार पर थिरकते मस्ती में लोग
बेहयाई से झूमे जमाना मगर "अमर" उनको जगाकर तो देखो।
52.
भटकते हुए खयालात हैं कि चाहतों की बरसात
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भटकते हुए खयालात हैं कि चाहतों की बरसात
अधमुंदी पलकों की हुई अलसाई भोर से मुलाकात।
परछाई ढूँढती रही वही बिछड़ा हुआ ठिकाना
खुद को ही बाँटता रहा बनके बेबसी की सौगात।
मुझसे सवाल करती रही मेरी ही सर्द साँसें
भटकती हुई रूह चुन रही बिखरे हुए लम्हात।
हँसते रहे अश्क़ सुस्त धड़कनों से खेलकर
सहरा-ए-जिस्म देख भड़के ठहरे हुए ज़ज्ब़ात।
चलकर आया समंदर दरिया से मिलने गाँव
खो गया चाँद 'अमर' ढूँढता आफताब सारी रात।
53.
आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
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आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
सोचते आप क्या बयाँ हम कैसे करें।
कहते हैं सभी कि सियासी कथन है
डँस रही जिंदगी जुदा हम कैसे करें।
सियासत चढ़ी बनकर दिमागी बुखार
धड़कनें बढ़ गई हैं बंद हम कैसे करें।
मुश्किल से सीखा है नज़रों को मिलाना
अपनी ही नज़र से जफ़ा हम कैसे करें।
दिल है तड़पता सिर्फ उलफत ही में नहीं
चू रहे अश्क 'अमर' जाया हम कैसे करें।
54.
दह़ान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
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दहान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
अज़ीब सुकूँ फिर से मिलने लगा।
ज़िगर चाक-चाक होता रहा लेकिन
शब़-ए-ग़म से बेखौफ गुजरने लगा।
ज़र्द पड़ गए ज़िस्म की पासबानी ये
रूहे-फ़ना को कब़ा से लपेटने लगा।
भटके हैं उम्र भर दिल्ली की सड़कों पे
पहचान सदा-ए-ज़रस की करने लगा।
न पढ़ा हर्फे-इबारत नसीब की 'अमर'
करीब को यूँ करीब से समझने लगा।
55.
उनकी तो है बात अलग
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उनकी है हर बात अलग और है आवाज़ अलग
बयाँ करें क्या उनका मुखातीबे-अंदाज़ अलग।
हक़ जताकर टोकते और पूछते भी हैं वो हरदम
बिंदास उनकी दोस्ती रिश्ता-ए-आगाज अलग।
बंद कर आँखेँ सुनते ग़ज़ल फ़िर कहते लाजवाब
छू गए अशआर हैं सुखनवर के अल्फ़ाज़ अलग।
अक्सर जताते वो नामुमकिन नहीं लांघना पहाड़
हार जज़्ब करने वाले भी होते हैं जांबाज अलग।
निकालते संगीत सुरीला टूटे हुए साज से 'अमर’
झूमकर गाते ग़ज़ल ज़िदगी के सब राज अलग।
56.
ढूँढ नहीं पाया उनको
--------------------------
उम्र भर साथ चलते रहे लेकिन ढूँढ नहीं पाया उनको
बसते तो रहे तसव्वुर में मगर देख नहीं पाया उनको।
उड़ाते रहे सुकून से रोज वो अरमानों की राख़ खुद ही
फड़कते लबों ने बिखेरी खुशबू देख नहीं पाया उनको।
सहमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों-संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
चराग़े-लौ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको।
57.
रौशन दरो-दीवार थी
-------------------------
रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
वख्त की मार पड़ी ऐसी कि न नसीब है मिट्टी का दीया।
चौखट व दालान उजियाते रहे वर्षों खून से जलकर चराग़
फूँकते दौलत बेशुमार शान से वो जलाते रहे घी का दीया।
एक दौर था कभी मिटती न थी रौनक उस कूचे की कभी
गुलाम भी जलाते रहे उनकी इनायत से उधारी का दीया।
जमीं बाँट ली सरहदें बनाकर चलता रहा सितम का खेल
जाँबाज़ भी जलाते रहे क़त्लो-गारद बदगुमानी का दीया।
हालते-मुल्क बदला आबो-हवा बदली बदल गए हुक्मरान
नवाबों को जलाते देखा तरसती आँखों से पानी का दीया।
हर साल आती दीवाली 'अमर' दिये भी जलते हैं हर बार
इस बार जलाओ दिल में इन्सानियत की बाती का दीया।
हमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों के संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
लौ-ए-चराग़ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको
58.
जब भी कदम उस ओर बढ़े
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जब भी कदम उस ओर बढ़े कोई बीच डगर क्यों आता है
होती है सुबह जब यादों पर फिर से अंधेरा सा छा जाता है।
भूलूँ कैसे उस दिन को भी जब भाग मिले तुम मेरे सीने से
कैसे मिटाऊँ यादों का घरौंदा हरपल जो फिर भरमाता है।
अब शाम हुई तारे भी चमके रजनी चली करने को सिंगार
बिजली चमकी तो सुधियों में आकर रूप तेरा लहराता है।
चाँद भी रूठा चाँदनी सिसकी और शबनम की बौछार हुई
भोर ने जबसे देखा तुमको मन अंदर तक अब पछताता है।
कैसे कहें जाकर उनसे कि ऊसर मिट्टी में उगी दूब 'अमर'
देखकर बढ़ता प्रेम का बिरुवा दिल अपना अब इतराता है।
59.
पहले से थे करीब जब करीब और आ गए
----------------------------------------------
पहले से थे करीब जब करीब और हो गए
नज़दीक से देखा तो हमसे वो दूर हो गए।
पास रहते रहे मग़र बनी रहीं दूरियाँ जनाब
जख्म़े-ज़िगर देकर वो भी यूँ मश़हूर हो गए।
लुत्फ़ ले रहे सब पढ़कर हर्फ़े-दर्दे-दिल मेरा
कुरेदा पुराने घाव जो सिरफ़ नासूर हो गए।
गूँज़ती रही चुप्पी मुस्कुराते रहे होंठ उनके
समां ऐसा के शेर कहने को मजबूर हो गए।
मश़गूल सभी खुद में कुछ मश़रूफ भी रहे
बदला तो नहीं कुछ बदनाम जरूर हो गए।
'अमर' उस्ताद बन रहे वही जो मुरीद़ थे तेरे
बदलती आब़ो-हवा में सबको ग़ुरूर हो गए।
60.
लोग हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैंं
--------------------------------------------------------
लोग तो हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैं
डूबते हुए सूरज को भी वो श्रद्धा से दीया दिखाते हैं।
देख लो खोलकर आँखें तुम दीनो-धरम के ठेकेदारो
चीखते रहो लेकिन हम ही पूजा का अर्थ जतलाते हैं।
कुदरत लुटाती रही नूर सब पर खुदा की कायनात में
और इंसान आज आबो-हवाओं का भी दिल दुखाते हैं।
कचरा फैलाते नव-दौलतिया पागलपन के इस दौर में
सर्द पानी में खड़े लोग सुबह का उजाला ढूंढ लाते हैं।
रोज करते जुमलों से विकास हालते-मुल्क की रहनुमा
मगर साफ कर गंदगी आम आदमी उम्मीद जगाते हैं।
पहनकर नाकभर सेंदूर वो दुआ में उठाते रहे दोनों हाथ
जिंदगी तो जश्न है 'अमर' हर पल उमंगों के गीत गाते हैं।
61.
जब भी खिलों फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
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जब भी खिलो फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
गर बिखरो बन पराग-कण रस-मकरंद बना लेना मुझको।
फैलो जब बरगद की तरह छाया बनना तुम पथिक के लिए
तन-मन शीतल करने को मंद समीर सा बुला लेना मुझको।
दरिया की तरह इठलाओ तुम हर पल गाओ बढ़ते जाओ
बीहड़ में जों चट्टान मिले तो बर्फ़ सा पिघला लेना मुझको।
झील सी गहरी इन आँखों में जब डूबा जाए युग का यौवन
खुद से मिलने की खातिर तुम मुझसे ही चुरा लेना मुझको।
ख्वाबों में ही तुम जब खो जाओ और गरम साँसें भी निकले
दिल के धड़कन की सरगम का बना राग बसा लेना मुझको।
जब भी खुद को ढूँढा मैने हर बार 'अमर' तेरा अख्श दिखा
पर कट गई उम्र ना खोज मिटी आँसू सा बहा लेना मुझको।
62.
किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
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किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
ना मालूम कहाँ से ऐसी जिया आ रही है।
देखता हूँ सब कुछ पर कुछ दीखता नहीं
आफताब चढ़ रहा उधर घटा छा रही है।
कल कुछ भी नहीं था आज भी कुछ नहीं
किसको पता हवा भी सौगात ला रही है।
जिस्म मचलता रहा और जिगर जल गया
आग को आग अब किस कदर खा रही है।
रोने की सूरत में भी हँसने की आदत उसे
गम और खुशी के गीत बेफिक्र गा रही है।
समा क्या अजब 'अमर' कुछ सूझता नहीं
अंधेरे-उजाले की ये रंगत गजब ढा रही है।
63.
शेर कहने की जबसे आदत बन गई
----------------------------
शेर कहने की जबसे आदत बन गई
वक्त की हर शै ही इबादत बन गई।
लमहा-लमहा जीने का सुरूर आ रहा
लमहा-लमहा मरना किस्मत बन गई।
पीता हूँ जब भी तो बढ़ जाती है प्यास
पीयेे बगैर जिंदगी ही मुसीबत बन गई।
तन्हा कोई पीता कोई पीता भरे-बज़्म
पीये बिन गुफ्तगू एक हसरत बन गई।
अपने-अपने हिस्से का पी रहे हैं सभी
कतरा-ए-ग़म पीने की फितरत बन गई।
पीने की ख़्वाहिश में बेचैन तुम 'अमर'
अश्कों को पी लेने की चाहत बन गई।
64.
जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
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जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
फिर से आज पीने की चसक बढ़ गई है।
फैली हुई आग फिर भी हर तरफ अँधेरा
धुआँ में घर बनाने की सनक बढ़ गई है।
हाथों में हाथ डाल बैठते जो साथ-साथ
आँखें अब दिखाने लगे चमक बढ़ गई है।
नफरतों के घेरे में कैद हुई जिंदगी जबसे
खत्म हुई शर्मो-हया व ठसक बढ़ गई है।
छूकर आती रही उनको ये महकती हवा
बहारो रुक दिलों की कसक बढ़ गई है।
पीना ही पड़ेगा 'अमर' जहर भी जों लाएँ
तैरती हुई सांसों की भी महक बढ़ गई है।
65.
टूटते देखा रिश्ता-ए-दिल जुटते भी देखा बार-बार
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टूटते देखा रिश्ता-ए-दिल जुटते भी देखा बार-बार
पिघलकर जिस्म उतरता रहा यूँ रूह के आर-पार।
जीते रहे उन्हीं लम्हों को लबों ने हिलकर दिये जो
बनकर मिटते रहे फासले दिल होता रहा बेकरार।
वक्त की अब डोर किधर ले जा रही हमें क्या पता
हिचकोले लेते रहे साँसों के सरगम में धुन हजार।
शहनाई गूँजती तो कभी होता रणभेरी का निनाद
कौन समझाए अश्कों को बहते ही रहे जार-जार।
सिर्फ इश्क नहीं बहुत कुछ और भी दिल में उनके
दर्द में डूबो फिर देखो सुरूरे-चाहत अभी बरकार।
ग़म भी है उल्फ़त भी है 'अमर' जिंदगी तो सफर है
करीब दूर होते रहे दूरियाँ ही मुकम्मल सदाबहार।
66.
अच्छा हुआ जो तुम बीहड़ों के हमसफर नहीं
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अच्छा हुआ जो तुम बीहड़ों के हमसफर नहीं
पाँवों के छाले दिल पे उगे तुम्हें भी खबर नहीं।
हर वक़्त हर दिशा से आती अजनबी आवाजें
चलने को बढ़े कदम तो भी मिली डगर नहीं।
घूमते जा रहे हैं यहाँ सभी अपने ही घेरे में रोज
साथ सबके हो लिए कोई खुद का सफर नहीं।
चाहा सुनो तुम भी दिल की हुई दिल से गुफ़्तगू
दूर बहुत निकल गए अब गई आस मगर नहीं।
सामने खड़ी है भोर फिर मंजर नया सा लेकर
कैसे डग बढ़ाऊँ रस्ते में तुम साथ अगर नहीं।
पढ़ता रहा हूँ सब दिन कभी जिस्म ने लिखा जो
हो एहसास बयाँ कैसे 'अमर' जों आँखें तर नहीं।
67.
सुलझाने के सारे जतन अब फिर से उलझाना लगता है
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सुलझाने के सारे जतन अब फिर से उलझाना लगता है
उलझे बालों पर टिकी नज़र तो सब सुलझाना लगता है।
सफ़ा पलटकर बैठ गया छिपी हुई सी बंद किताब का
डायरी के पन्नों से चिपका सूखा फूल पुराना लगता है।
छितराकर ढक लेते मुझको काले लम्बे घुँघराले बाल
चाँदी की जो लेप लगी चाँद और सुहाना लगता है।
बीत गए दुख के दिन सारे कहते जिनको अफसाना हैं
मुझसे छिपकर जों मुस्काते अनमोल खजाना लगता है।
पता ना चला कब शाम हुई वापस लौटी बिसरी यादें
चकाचौंध की मारी आँखेँ अश्कों का नज़राना लगता है।
ये गणित नहीं जीवन है 'अमर' चिकनी मिट्टी सी फिसलन
पथरीली पगडंडी पर चलकर अब तूफान तराना लगता है।
68.
सबको मालूम वो आह नहीं भरते हैं
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सबको मालूम वो आह नहीं भरते हैं
रोज-रोज मगर दिल की बात कहते हैं।
हमने भी उनको फरिश्ता समझ लिया
खुद को तो लेकिन वो खुदा ही समझते हैं।
धुआँ ही धुआँ फैला हुआ चारों ओर
ढूँढने से मगर अब भी शोले नहीं मिलते हैं।
धुँध बढ़ गई तो याद आ गए वायदे
तुमने तो कर दिए थे आज हम भूलते हैं।
गिनते रहे लहरें सभी दूर खड़े होकर
अब आ ही गई सुनामी तो कश्ती ढूँढते हैं।
छीलकर संतरे वो खिलाते रहे 'अमर'
छिलके ही जब बच गए तो अँगूठा चूसते हैं।
69.
ये जो वादों की फिर झड़ी लग रही है
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ये जो वादों की फिर झड़ी लग रही है
शायद चुनावों की आँधी चल रही है।
वो समझते कि मेरे महबूब बन गए हैं
सोते में भी उनके लार ठपक रही है।
ग़ुरब़त का मजाक उड़ाने का हुनर है
अदाओं में अशर्फ़ियाँ लटक रहीं हैं।
देखिए ज़ंगे-तख़्ते-ताऊस की रंग़त
मज़लूमों से ही दिललगी कर रही है।
मंच खाली करने के होने लगे इशारे
तालियों की गड़गड़ाहट बढ़ रही है।
खुशफ़हमी में हैं वो रहने दे 'अमर'
सियारों की जमात साथ मचल रही है।
70.
देखिये गौर से बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब हूँ मैं
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देखिये गौर से बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब हूँ मैं
भरे बज़्म अश्क़ पी लूँ आज बेताब़ हूँ मैं।
ढूँढता वो नूर कोहरे ने छिपा रक्खा जो
धुँधलके में आशिकों का अंदाज हूँ मैं।
परिंदों सा उड़ने की ग़र मिशाल हो तुम
चुप़के से आँखों में समाता ख्वाब़ हूँ मैं।
हँस-हँस के रोते सभी आज बाज़ार में हैं
रूलाकर फिर हँसा दे वही शराब़ हूँ मैं।
लुटाते रहे शोखियाँ सब दिन ज़माने पे
ज़माने की जफ़ा का ही तो जवाब़ हूँ मैं।
हुस्ऩो-द़ौलत पे नज़र 'अमर' है सबकी
तस़व्वुर में बसा लो दिले-महताब़ हूँ मैं।
71.
क़बा कैसी ये कुदरत ओढ़ रही बार-बार
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क़बा कैसी ये कुदरत ओढ़ रही बार-बार
चारों तरफ क्या है किस धुँध का हिसार।
सीने में जलन और आँखों में घुटन कैसी
जीने की भीख माँग काँपते दरख्त बेदार।
न पता आज मंजिल का है न रास्ते दिखे
छटपटातीं हवाएँ साँस लेने को बेकरार।
गुलशन क्या कहे गुँचे फिर क्यों उदास
कौन पूछै किससे बौराए बागबां फरार।
गुजर रहा वक्त रौ-ए-बुलहवस की सिम्त
गिरिया-ए-हुकूमत बस सियासी पैकार।
सर्फ़े-वफ़ा कैसे अब फ़रार-ए-ज़िन्दगी में
तीरे-नज़र जाए 'अमर' कैसे दिल के पार।
72.
सबको रहता था अक्सर उनका इंतजार
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सबको रहाता था अक्सर उनका इंतजार
आँगन में नित आया करती लेकर बहार।
जब भी होती महफ़िल में चर्चा वफ़ावों की
सबकी निगाहें जातीं थीं उधर बार-बार।
बेवफ़ाओं की फेहरिस्त में डाला मेरा नाम
कि वफ़ा मेरी रुला देती अकेले कई बार।
टँगी तस्वीर के पीछे कुछ लिखा मिला है
पथरा गई आँखें वहीं ठहरा हुआ है प्यार।
दिन के उजाले में तुम छिपा लो सारी यादें
महकेंगी बनकर सभीं अँधेरे में हरसिंगार।
अपनी-अपनी यादों के घेरे में सभी कैद हैं
तेरी यादों का 'अमर' अब है खुला संसार।
73.
चुँधिया गई आँखें तेज़ रौशनी चुभ रही है
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चुँधिया गई आँखेँ तेज़ रौशनी चुभ रही है
अँधेरों में देखने की आद़त सी हो गई है।
क़बा डालने का तुम सलीका भी तो सीखो
मलमल के कुर्ते से शराब की बू आ रही है।
पंडित बहुत हैं यहाँ अब सारे फ़िक्र छोड़ो
हर मर्ज़ की दवा में ये कलेवा बँध रही है।
नूर-ए-ईलाही रूह तलक पहुंचे भी तो कैसे
हर बुत़ की अलग से जो इब़ादत हो रही है।
मुश़ायरे में बैठे बहुत सारे आलिम़-फ़ाज़िल
दिल छोड़ आए घर मेरी ग़ज़ल रो रही है।
सुनाता हूँ दिल की धड़कनों के गीत 'अमर'
आज मेरी नज़्म ही मेरी आवाज़ बन गई है।
74.
कैसी है उलझन आज ये फिर कैसी तड़पन है
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कैसी है उलझन आज ये फिर कैसी तड़पन है
दूर हो तुम पास भी हो ये कैसी बिछुड़न है।
जब भी थे हम साथ तो बनता रहा एक फ़ासला
आज तो हैं दूर हम क्यों फिर तेज धड़कन है।
धुंध थी पसरी हुई कल चल रहे थे साथ जब हम
फैली हुई यह धुंध तो उन लमहों की सिहरन है।
मुश्किल ही था तब रोक पाना आंसुओं की धार को
आज फ़िर मुश्किल समझना ये कैसी थिरकन है।
तुम कहाँ तक जाओगे मुझको भटकता छोड़कर
आने लगी फ़िर से हँसी अब तो साथ बंधन है।
'अमर' देखते हैं दूर से सब तुम भी बैठे दूर हो
पागल हैं सब क्योंकर बताएँ भीगा हुआ मन है।
75.
देखे हैं इतने ख़्वाब कि आँखों में अब अँटते नहीं
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देखे हैं इतने ख़्वाब कि आँखों में अब अँटते नहीं
ख़्वाब तो पर ख़्वाब हैं आकर कभी थकते नहीं।
धधका दिया बहती हवा ने आग को चारों तरफ
लाख तुम कह दो फ़साना सच कभी छिपते नहीं।
खामखा तुम चल रहे थे सहरा की तपती रेत पर
जागकर सो जाओ फिर से कोई कुछ कहते नहीं।
घुप्प अँधेरा छाया नहीं है बस खो गई है चाँदनी
कौन किसके दिल में झाँके चाँद तो दिखते नहीं।
आसमां ने जिद पकड़ ली रात भर है जागना ही
भोर भी घायल हुई शब़नम के आँसू थमते नहीं।
खेल ये सब जुग़नूओं के सूरज कभी उलझे नहीं
कर उज़ाला रोज 'अमर' ख़्वाब कभी रुकते नहीं ।
76.
कहीं बीते हुए कल की कोई कहानी तो नहीं
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कहीं बीते हुए कल की कोई कहानी तो नहीं
राख़ में दबी सी आग की निशानी तो नहीं।
ज़हर पीकर कैसे रोज मुस्कुरा लेते हैं लोग
बिलखती हुई यमुना का ये पानी तो नहीं।
कैसे कह दें मुझे अंजाम की परवाह नहीं
गुज़रे वक़्त की अल्लहड़ जवानी तो नहीं।
फ़िक्रमंद हाफ़िजे-मिल्लत बहुत हैं मगर
मिलती कभी मीरा सी दीवानी तो नहीं।
दावा करते रहते हैं बदलने के सारे तंजीम
पता कीजिए कहीं मेरी बदगुमानी तो नहीं।
लुत्फ़ बे-इंतिहा लबे-सागरे-हशरत की 'अमर'
राज-पोशीदा बुलहवश की बेकरानी तो नहीं।
77.
खामोश पड़े लब़ हिले तो सही
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खामोश पड़े लब़ हिले तो सही
सुर्ख़ गुलाब अब खिले तो सही।
धड़कनों के संग फिर एक बार
नफ़रतों पे उल्फ़त पले तो सही।
कोहरे छँटे ज्यों पास आए हम
मन के मैल फिर धुले तो सही।
खुल जाएँगे राज़े-उल्फ़त सभी
ज़ज़्बात दिल के मिले तो सही।
लम्बी है रात हाँ कटेगी जरूर
कुछ कदम साथ चले तो सही।
कहाँ कोई इतर तुमसे है 'अमर'
रूह में सदाएँ बस घुले तो सही।
78.
बेहोश की न होश की जो दवा दे गए
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अमर पंकज
(अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल -) 9871603621
बेहोश की न होश की जो दवा दे गये,
कुर्बान हम उनकी अदा पे हो गये।
बदलकर ठिकाना पता पूछें वो हमसे
इसी मासूमियत में हम खो गए।
लुटाए थे हमने भी खूब प्यार उनपर
फ़सादों के बीज वही बो गए।
मजलूमों की नहीं है अब कोई बिसात
लुटेरों की हवेली में सब सो गए।
जम्हूरियत में है नचाने की पूरी ताकत
अब ईशारों पे नाचती सब रो गए।
मुद्दतों पड़ा रहा सीने पे बोझ 'अमर'
तूफान क्या उठा तुम सब ढ़ो गए।
79.
मंज़र यहाँ का आज सूना सा क्यों है
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मंज़र यहाँ का आज सूना सा क्यों है
चेहरा दीखता जो नमूना सा क्यों है।
हो तो रहा है सड़कों पे नारों का शोर
इंक़लाब फिर भी बेग़ाना सा क्यों है।
तब़ियत से खुद को लुटाते तो रहे हम
लुटने को फ़िर से दीवाना सा क्यों है।
तड़पती रही सब दिन बेक़ल जवानी
ख़लाओं में भी ये प़रवाना सा क्यों है।
अपनों की फ़ितरत कोई मत पूछ हमसे
चश़्मे-रक़ीब़ भी आशना सा क्यों है।
ना मंज़िल का पता 'अमर' ना रास्ता दिखे
तूफ़ान वो सहरा फ़िर अपना सा क्यों है।
80.
कहना था क्या और क्या कह गए
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कहना था क्या और क्या कह गए
तारीफ़ की नज़र से शिकवे कर गए।
आती नहीं है रास ये रंजो-गम़ की बातें
शिकवों के बहाने लेकिन रस भर गए।
मुद्दतों बाद फिर दिल में जगह तो दिखी
अनमने से आज कुछ बात कर गए।
जब ली नहीं ख़बर तो कोसते थे मुझको
रोज हाल पूछा अगर तो वही डर गए।
मुस्कराते रहे वो माज़ी को याद करके
बेहद ह़सीन लमहे यूँ ही बिखर गए।
जगजीत क्यों नहीं अब वो पूछते हमी से
किस बेरूख़ी से बन शायर 'अमर' गए।
81.
ज़िन्दगी गुनगुनाने की तबियत बना लो ज़रा
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जिंदगी गुनगुनाने की तब़ियत बना लो ज़रा
मुड़ के देखो व मुस्कराने की आदत बना लो ज़रा।
तूफानों से घिरता रहा सबदिन सफ़र-ए-जिंदगी
तूफानों में सुस्ताने की फुर्सत निकालो ज़रा।
रिसता ही रहा कतरा-कतरा ज़ख़्मे-ज़िगर
चुपके से अश्क पीने की फ़ितरत बना लो ज़रा।
लम्बा है सफ़र थकावट भी होगी मग़र
बन जाएँ वो आईना के मुहुरत निकालो ज़रा।
दिखेंगी बहारें ग़र देखो गूँचों की नज़र से
चमन है तो इसको भी खूबसूरत बना लो ज़रा।
ज़माने भर का जहर तुमने पिया है 'अमर'
जहर पीके हँसने की नफ़ासत दिखा लो ज़रा।
82.
तुमसे तो सच सुना नहीं जाता
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तुमसे तो सच सुना नहीं जाता
हमसे भी झूठ कहा नहीं जाता।
मिले तो अब कैसे मिले चैन भी
कुछ और अब सहा नही जाता।
दिमाग नहीं जब खुद के बस में
आराम से फिर रहा नहीं जाता।
ख्वाबों में ही सही जी तो लेता हूँ
हकीकत में तो जीया नहीं जाता।
कितनी बेनूर होती जा रही सुबह
लुट रही शबनम देखा नहीं जाता।
तुम अँधेरे में तीर चलाओ 'अमर'
हाले-दिल सबसे कहा नहीं जाता।
83.
जज्बात दिखलाओ मगर सलीके से
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जज्बात दिखलाओ मगर सलीके से
प्यार भी जताओ मगर सलीके से।
लबालब भर गया है दिल का घड़ा
ग़ज़ल तो सुनाओ मगर सलीके से।
मन की खिड़की खुली तुम्हारे लिए
पास आ जाओ मगर सलीके से।
प्यार करने का हुनर सीखो हमसे
तुम मुस्कुराओ मगर सलीके से।
हर शख्स चोट खाके बैठा है यहाँ
मरहम लगाओ मगर सलीके से।
उल्फत के नखरे 'अमर' क्या जानो
नखरे भी उठाओ मगर सलीके से।
84.
अजीब है ये रिश्ता इसको निभाना है मुश्किल
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अजीब है ये रिश्ता इसको निभाना है मुश्किल
अपने बन गए अज़नबी अब भुलाना है मुश्किल।
होने को तो हर वक्त़ लोग सभी होते मेरे पास
वक्त़ पर किसी को लेकिन बुलाना है मुश्किल।
जब कोई नहीं होता होती हैं सिर्फ खामोशियाँ
खामोशियों की सदाएँ भी सुनाना है मुश्किल।
कहा नहीं जाता कुछ कहे बिन रहा नहीं जाता
कैसी ये कसमकस खुद को जलाना है मुश्किल।
देखूँ जब भी आईना आँखों में सूरत वही दिखती
लौटेंगे दिन फिर बहारों के ये जताना है मुश्किल।
ख़िजाओं के दिन अब और कितने बचे हैं 'अमर'
जा रहा पतझड़ बहारो और तड़पाना है मुश्किल।
85.
दस्तूर है यहाँ का लोग हर कदम पे काँटे बिछाते हैं
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दस्तूर है यहाँ का लोग हर कदम पे काँटे बिछाते हैं
गजब तेवर उनका हर हाल इत्मीनान दिखलाते हैं।
खामोशियों को चुप्पी बतलाने वाले सयाने हैं सभी
बड़ी सफाई से पूरा सच सारी दुनिया से छुपाते हैं।
यूँ तो हर रोज बयाँ कर देती सबकुछ तेरी गजल
पर अभी भी कई लोग यहाँ सच से आँखें चुराते हैं।
सुनिए जरा गौर से आप क्या कह रही मेरी ग़ज़ल
जुदा है तासीर इसकी सभी लोग लुत्फ़ उठाते हैं।
हुस्नो-अदाओं का ही महज खेल होती नहीं जिंदगी
एक ही जिंदगी में कई जन्मों का हम कर्ज चुकाते हैं।
तेरे अशआर सुनकर लोग जो आज चुप हैं 'अमर'
यकीनन तन्हाईयों में तेरी ही ग़ज़ल गुनगुनाते हैं।
86.
जनाजा आज फिर उसी का जा रहा था
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जनाजा आज फिर उसी का जा रहा था
कल का महाराजा उसे कहा जा रहा था।
कारवाँ चला करता था कल जिसके साथ
चार कँधों पे लेटा वह अकेला जा रहा था।
समझता था खुद को जो इल्म का खिलाड़ी
अनाड़ी था बेतहाशा भगा जा रहा था।
की बहुत कोशिश उसने कूद-फाँद करने की
बैसखियों की खोज में जो मरा जा रहा था।
तारीफ़ करते जिसकी लोग थक़ते नहीं थे
बदला निज़ाम तो वह पिटा जा रहा था।
पिटने को तो अब सभी पिट रहे सरे आम
'अमर' तेरा पिटना ख़ास बना जा रहा था।
87.
ज़न्नत की बात कुछ सताती तो होगी
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ज़न्नत की बात कुछ सताती तो होगी
गुज़रे ज़माने की याद आती तो होगी।
देखिए कितनी रौनक़ है दोज़ख़ में आज
कर्मों की आग भी ज़लाती तो होगी।
सहरा और ग़ुलशन का मिट गया फर्क
वीरानग़ी दिल बहलाती तो होगी।
नया दौर है इसमें उसूल भी बन गए हैं नये
अँधेरी रात ग़ुर सिखलाती तो होगी।
बेशर्मी की कीमत बढ़ गई है आजकल
फिज़ा बाज़ार का रुख़ ज़ताती तो होगी।
ग़र्म हवाओं की सौग़ात ले लेना 'अमर'
ज़िन्दगी तुम्हें भी बताती तो होगी।
88.नए दौर में
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नए दौर में अब सब सामान नया-नया सा
चूल्हा-चौकी और जाम नया-नया सा।
सफ़ाई से खाने का रिवाज़ बन गया
हाट में सब्जियों का दाम नया-नया सा।
तोड़कर बनाते सड़क-द़ीवार रोज-रोज
अर्श छूने का सबका अंदाज़ नया-नया सा।
कहते कि मज़दूर मुल्क़ का राजा बन गया
बदल गया शाही लिबास नया-नया सा।
फ़ैसला नहीं सिर्फ तारीख़ देती अदालतें
न्याय का हुआ है रिवाज़ नया-नया सा।
नए ज़माने के 'अमर' तुम सुख़नवर हो नए-नए
ढूँढो ग़ज़ल कहने के अल्फ़ाज़ नया-नया सा।
89.
ढूँढता रहा उम्र भर
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ढूँढता रहा उम्र भर कोई तुम सा ना मिला
उजड़े हुए चमन में गुलाब फिर कभी ना खिला।
कहते सब कि खार भी हो गए सयाने आजकल
गिरते फूल देखा कोई आँधियों में ना हिला।
तजुर्बा-ए-जिन्दगी मुझे ले आई इस मकाम पे
सीखा जबसे मुस्कुराना उनको हुआ गिला।
खुद को ही आईना हम दिखाते रहे उम्र भर
सिर्फ धुआँ था आँखों में किसका था सिला।
फिर छाई है पहचानी घटा फिर वही शाम
सुर्ख लबों ने दिया है यादों का जाम पिला।
खोजते आज फिर दिन में सितारों को 'अमर'
शाह अक्सर बनाते ही रहे हैं खूँ से सना किला।
90.
लोग नहीं नए
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लोग नहीं नए आलमे-खबर नया-नया था
अधेड़ उम्र हाथ थामे खंज़र नया-नया था।
ज़र्द पड़ गए चश्म पे अब चश्मा चढ़ा हुआ
नए दौर का तज़ुर्बा-ए-सफ़र नया-नया था।
घुटनों के बल बैठने की फ़ितरत नहीं रही
तेज़ क़दम चलना मना डग़र नया-नया था।
बख़ान कर रहे सभी अपनी बहादुरी का
रिसता खून आँखों से मग़र नया-नया था।
दंग थे सुन दास्ताने-जंग़े-ज़िहाद बुजुर्ग के
भूल गया जख़्म गोया ज़हर नया-नया था।
हाशिए पर जाकर 'अमर' तुम लेते रहे लुत्फ़
तेरी लगाई आग का मंज़र नया-नया था।

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
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आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
सोचते आप क्या बयाँ हम कैसे करें।
कहते हैं सभी कि सियासी कथन है
डँस रही जिंदगी जुदा हम कैसे करें।
सियासत चढ़ी बनकर दिमागी बुखार
धड़कनें बढ़ गई हैं बंद हम कैसे करें।
मुश्किल से सीखा है नज़रों को मिलाना
अपनी ही नज़र से जफ़ा हम कैसे करें।
दिल है तड़पता सिर्फ उलफत ही में नहीं
चू रहे अश्क 'अमर' जाया हम कैसे करें।

दह़ान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
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दहान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
अज़ीब सुकूँ फिर से मिलने लगा।
ज़िगर चाक-चाक होता रहा लेकिन
शब़-ए-ग़म से बेखौफ गुजरने लगा।
ज़र्द पड़ गए ज़िस्म की पासबानी ये
रूहे-फ़ना को कब़ा से लपेटने लगा।
भटके हैं उम्र भर दिल्ली की सड़कों पे
पहचान सदा-ए-ज़रस की करने लगा।
न पढ़ा हर्फे-इबारत नसीब की 'अमर'
करीब को यूँ करीब से समझने लगा।

उनकी तो है बात अलग
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उनकी है हर बात अलग और है आवाज़ अलग
बयाँ करें क्या उनका मुखातीबे-अंदाज़ अलग।
हक़ जताकर टोकते और पूछते भी हैं वो हरदम
बिंदास उनकी दोस्ती रिश्ता-ए-आगाज अलग।
बंद कर आँखेँ सुनते ग़ज़ल फ़िर कहते लाजवाब
छू गए अशआर हैं सुखनवर के अल्फ़ाज़ अलग।
अक्सर जताते वो नामुमकिन नहीं लांघना पहाड़
हार जज़्ब करने वाले भी होते हैं जांबाज अलग।
निकालते संगीत सुरीला टूटे हुए साज से 'अमर’
झूमकर गाते ग़ज़ल ज़िदगी के सब राज अलग।
उम्र भर साथ चलते रहे लेकिन ढूँढ नहीं पाया उनको
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उम्र भर साथ चलते रहे लेकिन ढूँढ नहीं पाया उनको
बसते तो रहे तसव्वुर में मगर देख नहीं पाया उनको।
उड़ाते रहे सुकून से रोज वो अरमानों की राख़ खुद ही
फड़कते लबों ने बिखेरी खुशबू देख नहीं पाया उनको।
सहमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों-संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
चराग़े-लौ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको।
रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
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रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
वख्त की मार पड़ी ऐसी कि न नसीब है मिट्टी का दीया।
चौखट व दालान उजियाते रहे वर्षों खून से जलकर चराग़
फूँकते दौलत बेशुमार शान से वो जलाते रहे घी का दीया।
एक दौर था कभी मिटती न थी रौनक उस कूचे की कभी
गुलाम भी जलाते रहे उनकी इनायत से उधारी का दीया।
जमीं बाँट ली सरहदें बनाकर चलता रहा सितम का खेल
जाँबाज़ भी जलाते रहे क़त्लो-गारद बदगुमानी का दीया।
हालते-मुल्क बदला आबो-हवा बदली बदल गए हुक्मरान
नवाबों को जलाते देखा तरसती आँखों से पानी का दीया।
हर साल आती दीवाली 'अमर' दिये भी जलते हैं हर बार
इस बार जलाओ दिल में इन्सानियत की बाती का दीया।
हमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों के संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
लौ-ए-चराग़ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको
जब भी कदम उस ओर बढ़े
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जब भी कदम उस ओर बढ़े कोई बीच डगर क्यों आता है
होती है सुबह जब यादों पर फिर से अंधेरा सा छा जाता है।
भूलूँ कैसे उस दिन को भी जब भाग मिले तुम मेरे सीने से
कैसे मिटाऊँ यादों का घरौंदा हरपल जो फिर भरमाता है।
अब शाम हुई तारे भी चमके रजनी चली करने को सिंगार
बिजली चमकी तो सुधियों में आकर रूप तेरा लहराता है।
चाँद भी रूठा चाँदनी सिसकी और शबनम की बौछार हुई
भोर ने जबसे देखा तुमको मन अंदर तक अब पछताता है।
कैसे कहें जाकर उनसे कि ऊसर मिट्टी में उगी दूब 'अमर'
देखकर बढ़ता प्रेम का बिरुवा दिल अपना अब इतराता है।
पहले से थे करीब जब करीब और आ गए
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पहले से थे करीब जब करीब और हो गए
नज़दीक से देखा तो हमसे वो दूर हो गए।
पास रहते रहे मग़र बनी रहीं दूरियाँ जनाब
जख्म़े-ज़िगर देकर वो भी यूँ मश़हूर हो गए।
लुत्फ़ ले रहे सब पढ़कर हर्फ़े-दर्दे-दिल मेरा
कुरेदा पुराने घाव जो सिरफ़ नासूर हो गए।
गूँज़ती रही चुप्पी मुस्कुराते रहे होंठ उनके
समां ऐसा के शेर कहने को मजबूर हो गए।
मश़गूल सभी खुद में कुछ मश़रूफ भी रहे
बदला तो नहीं कुछ बदनाम जरूर हो गए।
'अमर' उस्ताद बन रहे वही जो मुरीद़ थे तेरे
बदलती आब़ो-हवा में सबको ग़ुरूर हो गए।
लोग तो हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैं
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लोग तो हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैं
डूबते हुए सूरज को भी वो श्रद्धा से दीया दिखाते हैं।
देख लो खोलकर आँखें तुम दीनो-धरम के ठेकेदारो
चीखते रहो लेकिन हम ही पूजा का अर्थ जतलाते हैं।
कुदरत लुटाती रही नूर सब पर खुदा की कायनात में
और इंसान आज आबो-हवाओं का भी दिल दुखाते हैं।
कचरा फैलाते नव-दौलतिया पागलपन के इस दौर में
सर्द पानी में खड़े लोग सुबह का उजाला ढूंढ लाते हैं।
रोज करते जुमलों से विकास हालते-मुल्क की रहनुमा
मगर साफ कर गंदगी आम आदमी उम्मीद जगाते हैं।
पहनकर नाकभर सेंदूर वो दुआ में उठाते रहे दोनों हाथ
जिंदगी तो जश्न है 'अमर' हर पल उमंगों के गीत गाते हैं।
जब भी खिलों फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
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जब भी खिलो फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
गर बिखरो बन पराग-कण रस-मकरंद बना लेना मुझको।
फैलो जब बरगद की तरह छाया बनना तुम पथिक के लिए
तन-मन शीतल करने को मंद समीर सा बुला लेना मुझको।
दरिया की तरह इठलाओ तुम हर पल गाओ बढ़ते जाओ
बीहड़ में जों चट्टान मिले तो बर्फ़ सा पिघला लेना मुझको।
झील सी गहरी इन आँखों में जब डूबा जाए युग का यौवन
खुद से मिलने की खातिर तुम मुझसे ही चुरा लेना मुझको।
ख्वाबों में ही तुम जब खो जाओ और गरम साँसें भी निकले
दिल के धड़कन की सरगम का बना राग बसा लेना मुझको।
जब भी खुद को ढूँढा मैने हर बार 'अमर' तेरा अख्श दिखा
पर कट गई उम्र ना खोज मिटी आँसू सा बहा लेना मुझको।
किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
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किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
ना मालूम कहाँ से ऐसी जिया आ रही है।
देखता हूँ सब कुछ पर कुछ दीखता नहीं
आफताब चढ़ रहा उधर घटा छा रही है।
कल कुछ भी नहीं था आज भी कुछ नहीं
किसको पता हवा भी सौगात ला रही है।
जिस्म मचलता रहा और जिगर जल गया
आग को आग अब किस कदर खा रही है।
रोने की सूरत में भी हँसने की आदत उसे
गम और खुशी के गीत बेफिक्र गा रही है।
समा क्या अजब 'अमर' कुछ सूझता नहीं
अंधेरे-उजाले की ये रंगत गजब ढा रही है।
शेर कहने की जबसे आदत बन गई
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शेर कहने की जबसे आदत बन गई
वक्त की हर शै ही इबादत बन गई।
लमहा-लमहा जीने का सुरूर आ रहा
लमहा-लमहा मरना किस्मत बन गई।
पीता हूँ जब भी तो बढ़ जाती है प्यास
पीयेे बगैर जिंदगी ही मुसीबत बन गई।
तन्हा कोई पीता कोई पीता भरे-बज़्म
पीये बिन गुफ्तगू एक हसरत बन गई।
अपने-अपने हिस्से का पी रहे हैं सभी
कतरा-ए-ग़म पीने की फितरत बन गई।
पीने की ख़्वाहिश में बेचैन तुम 'अमर'
अश्कों को पी लेने की चाहत बन गई।
जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
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जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
फिर से आज पीने की चसक बढ़ गई है।
फैली हुई आग फिर भी हर तरफ अँधेरा
धुआँ में घर बनाने की सनक बढ़ गई है।
हाथों में हाथ डाल बैठते जो साथ-साथ
आँखें अब दिखाने लगे चमक बढ़ गई है।
नफरतों के घेरे में कैद हुई जिंदगी जबसे
खत्म हुई शर्मो-हया व ठसक बढ़ गई है।
छूकर आती रही उनको ये महकती हवा
बहारो रुक दिलों की कसक बढ़ गई है।
पीना ही पड़ेगा 'अमर' जहर भी जों लाएँ
तैरती हुई सांसों की भी महक बढ़ गई है ।
मेरी नज़्म ही मेरी आवाज़ है
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
09871603621
1.
एक-एक कर ढ़हने लगीं ईमारतें
...........................................
एक-एक कर ढ़हने लगी ईमारतें सारी रेत पर बनी लगती हैं
टूटी हूई इन बस्तियों में अब आदमी नहीं भीड़ ही दिखती है।
उम्र भर कोशिश करते रहे हम धरोहरों को बचाए रखने की
मगर उजड़ गए गांवों की टीस यहाँ कहां किसी में दिखती है।
लबालब पोखर में पेड़ की फुनगी चढ़ कूद जाने की कशिश
बंद-साँसों गोता लगा तलहटी छूने की फितरत में दिखती है।
जानता हूँ जम्हुरियत की फसल अब ईंवीएम में लहराने लगी
धूर्त्तों को मिल गई चैन उनकी बेफ़िक्री की नींद में दिखती है।
कैसे मर जाने दूँ जज़्बात और ज़िन्दा रहने का हौसला 'अमर'
पांडवों की साधना की परिणति ही तो महाभारत में दिखती है।
2.
भगवान को ही बंधक बना लिया करते हैं
.....................................................
वो हिन्दू-मुसलमां और मंदिर-मसजिद की सियासत किया करते हैं
अक्सर धरम के नाम पर भगवान को ही बंधक बना लिया करते हैं ।
ये घिसे-पिटे लोग सियासतदां होने का दम भरते कभी नहीं थकते
गौर से देखा कर इन्हें सब के सब खाये-अघाये लोग हुआ करते हैं ।
दरअस्ल जिन्दगी की जद्दोजहद भी एक सियासत ही है मेरे दोस्त
जिन्दा रहने की जंग में सियासत के भी मायने बदल जाया करते हैं ।
जमीं-आसमां का फरक है उनकी और मेरी सियासत में हुजूर
करें वो वादा-ए-अफीम से बेसुध नज्मों से हम जगाया करते हैं।
इस दौर में तो सियासात की बातें तो सभी किया करते हैं 'अमर'
मगर सिरफ़ सच की सियासत हो इसीलिए तो गजल कहा करते हैं।
3.
कुछ ख्वाब कुछ हाकीकत
...................................
शायर हूँ खुद की मर्जी से अशआर कहा करता हूँ
कहता हूँ कुछ ख्वाब कुछ हकीकत बयां करता हूँ।
अपना तो हुनर है तसव्वुर में दीदारे-दहर ऐ दोस्त
थोड़ा मिलकर भी सबकी पूरी खबर रखा करता हूँ।
यूं तो छुपाने की पुरजोर कोशिश किया करते आप
वो तो मैं हूँ के सोजे-निहाँ मुश्तहर किया करता हूँ।
कैसे कह दूँ दुनिया-ए-अदब का इल्म नहीं आपको
तमीज़ भी होती है खुद को फनकार कहा करता हूँ।
जमाने की फितरत है सियासी-सितम जानते हैं 'अमर'
सच का सामना हो इसीलिए मैं गजल कहा करता हूं।
4.
जज्बात बचाए रखना
-------------------------------
शायर है तू अशआर कहने के अन्दाज़ बचाए रखना
नज्म़ लिखने गज़ल कहने के जज्बात बचाए रखना।
वक्त की नजाकत व मजबूरियों की बात सभी करते
सच से रु-ब-रु करा सकें जो वाकयात बचाए रखना।
हिला ना सकी तेज आँधियां अपनी ज़ड़ों से तुमको
तुझे तकने लगीं हैं निगाहें ये लमहात बचाए रखना।
बेवक्त की बारिश में कभी फसल नहीं उगा करती
ये दौर भी बदलेगा भरोसे के हालात बचाए रखना।
बेखुदी में अक्सर आईना देखते-दिखाते हो 'अमर'
दिलों को समझ सको वो एहसासात बचाए रखना।
5.
ग़ज़ल क्या कहे मैने
................................
ग़ज़ल क्या कहे मैंने तुम तो खबरदार हो गए
जज्बात जो भड़के मेरे सब तेरे तरफदार हो गए।
दुश्मनों की कतार में तुमको नहीं रक्खा हमने
हम सावधान ना हुए और तुम असरदार हो गए।
सितम ढ़ाने के भी गजब तेरे अन्दाज हैं जालिम
जिनसे भी तुम हट के मिले वो सरमायेदार हो गए।
कुछ तो सिखलाते हो तुम दुनियादारी का सबब
यूँ ही नहीं मिलकर तुमसे कुछ तेरे तलबदार हो गए।
कहते हैं के अदब में अदावत नहीं होती है 'अमर'
अदावत की हुनर में तो अब तुम भी समझदार हो गए।
6.
गफलत में है जमाना
..................................
शबनम की ओट में हैं वो शोले गिरा रहे
गफलत में है जमाना जो महबूब समझ रहे।
नफ़ासत से झुकते हैं वो क़त्ल के लिये
मासूमियत ये आपकी के सजदा बता रहे।
परोसते फरेब हैं डूबो-डूबो के चाशनी में
कातिल भी आज खुद को मसीहा बता रहे।
लो खैरात बांटते हैं रोज हमीं को लूटकर
लुटकर भी बेखुदी में हम जश्न मनाते रहे।
रहबरी का गुमां है तुझे तू तो मगरूर भी 'अमर'
पड़ गए सब पसोपेश में, तेरा गुरूर देखते रहे।
7.
तेरे आने की ही आहट से
-------------------------------------
तेरे आने की ही आहट से, मौसम का बदल जाना
परिन्दों का चहकना, या कलियों का मुस्कुराना।
कल के फ़ासले मिटाकर, अब गुफ़्तगू भी करना
नज्में भी उनका सुनना और ना नज़रें ही चुराना।
बोलती हुई सी आँखों से, हँस-हँस के ये बताना
अल्फाज भर नहीं, ना तुम बीता हुआ फसाना।
पढ़ लेते हैं हाले-दिल जो, चेहरे की सिलवटों से ही
सीने के जख्म सीकर भी, तुम यूँ मुस्कराते रहना।
दिलों की बातें सुनना दिल से ही बातें करना 'अमर'
दिमागदारों की बस्ती में बस दिल को बचाए रखना।
8.
सच कहने का मलाल कब तक करोगे
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ठहरो नहीं ऐ जिन्दगी तुम कभी, सरकती सही चलकर तो देखो।
बदली इबारत हर्फ़ को पढ़ो, बदलने का हुनर सीखकर तो देखो।
रंग व गुलाल में डूबा जमाना, कुछ देर तुम भी थिरककर तो देखो।
रकीब भी हबीब से मिलेंगे यहाँ, बस जरा तुम मुस्कुराकर तो देखो।
दिखते नशे में ये झूमते से लोग, करीब आप उनके जाकर तो देखो।
धुआँ ही धुआँ चिलमनों के पीछे, बहकते दिलों को छूकर तो देखो।
सच का मलाल कबतक करोगे, थकन से अगन को जलाकर तो देखो।
जमाना जल रहा सियासी-अदावत, नफ़रतो की लपटें बुझाकर तो देखो।
अगले बरस भी तकती रहेंगी, दिलों में मुहब्बत कुछ बचाकर तो देखो।
ता-उम्र संभलने की कोशिश क्यों, 'अमर' एक बार फिसलकर तो देखो।
9.
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा है
-------------------------------------------------
नक़ाबपोशी की जरुरत किसे है यहाँ खुला खेल है दांव आजमाते हैं लोग
लम्हों में हबीब, लमहों में रकीब बड़ी फख्र से फितरत दिखाते हैं लोग।
इंकलाबी नारों की रस्मी रवायत भी गूंजती फिजा में रोज लगाते हैं लोग
मादरे-वतन पे मिटने की कसमें भी अजान की तरह रोज सुनाते हैं लोग।
बेमानी आज करना बातें सुकूँ का ग़ज़ल क्यों कहे है हकीकत बयानी
आज तुमपे नज़र है कल सबपे पड़ेगी खुद से ही आज बेखबर हैं लोग।
बदल दूंगा आलम जुल्मते-सितम का घरों में दुबक कर बताते हैं लोग
बदला निज़ाम अब खाँसना मना है रुह काँप जाती सब जानते हैं लोग।
इंतहा जुल्म का कितना बाकी बचा आँखों में किसके कितना पानी बचा
किसकी रगों का खूँ उबलने लगा है 'अमर' वाकया सब जानते हैं लोग।
10.
रुसवाइयों का जश्न
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दर्द के प्याले मेरे नसीब में भी कुछ कम न थे
दीगर थी बात कि, मैं पीता भी रहा मुस्कुराता भी रहा।
अब कैसे कहें के फख्र था जिसकी यारी पे मुझे
वही तबीयत से रोज-रोज, दिल मेरा रुलाता भी रहा।
हैरान हूँ आप की इस मासूमियत पे ए दोस्त
मेरा साथ नागवार पे, औरों की महफ़िल सजाता रहा।
मेरे शिकवे को इस कदर थाम रक्खा है आपने
ये न देखा के हजारों जख्म, मैं खुदी से सहलाता रहा।
जरूरत थी बेइन्तिहा जिसकी तुझे ए 'अमर',
वो ही आज तुमसे, फासले का मीनार बनाता रहा।
11.
अब मुझे देखने लगे लोग
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तमन्ना-ए-लबे-जाम दीवानगी मेरी अब मुझे देखने लगे लोग
ये शोखी नफासत सलासत तिरा मुतास्सिर होने लगे लोग।
दीदार कर खुमारे-जिस्मे-नाजुक मिट गया शिद्दते-शौक मेरा
खिरमने-दिल का शरीके-हाल मुझसे ही अब कहने लगे लोग।
फिर आरजू शबे-वस्ल की नवा-ए-ज़िगर खराश कहाँ
मैकदे में तनहाई व साकी-ए-शबाब में डूबने लगे लोग
अजीब रवायत तेरे निजाम की रींद भी चश्मदीद बन गए
पेशे-दस्ती-ए-बोसां को दौलत से अक्सर तौलने लगे लोग।
आतिशे-दोजख का क्या हकीके-इश्क सा जुनूं बढ़ गया 'अमर'
चूम लूं गुले-रंगे-रुखसार हया क्या अब सब जानने लगे लोग।
12.
आपको देखा किया है हमने
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हसरत भरी निगाहों से आपको देखा किया है हमने
अहले-करम हैं आपके जिनपे, उसने भी हाय यों कभी देखा होता।
ब-रु-ए कार खड़ा कोई मजनूं वहां नहीं फिर भी साहिब
पैकरे-तस्वीर की मानिन्द दिल में उसने, आपको जों रक्खा होता।
जौके-वस्ल से हरदम आपने दिया किया है जिस्त का मजा लेकिन
महरुम-ए-किस्मत पुरकरी छोड, उसने सादगी जों जाना होता।
ज़ियां-वो-सूद की फिकर में भटकता दूदे-चरागे महफिल की तरह
चरागे-शम्मा में मुज़्मर रूहे-वफा को, कभी तो उसने परखा होता।
नासमझ कहे दुनिया तो क्या चूम लूं राहे-फना भी 'अमर'
सोजे-निहां जल रहा है काश, तुझे भी उसने कभी समझा होता।
13.
गजब की तूने दोस्ती निभाई है
...............................................
ऐ दोस्त क्या गजब की तूने दोस्ती निभाई है
के दोस्ती भी आज एक रफ़िक से शरमाई है।
मोहब्बत में अदावत अब कोई सीखे तुमसे
तेरी तासीर ही जुल्मते-जहराव और बेवफाई है।
सब रिन्द हैं यहाँ कौन देखे दर्दे-निहाँ किसी का
इस महफ़िल में तो सिर्फ अफसुर्दगी गहराई है।
दिल की खिलवतों में मस्तूर थी शोखे-तमन्ना
अब ये सोजे-जिगर भी तेरे तोहफे की रूसवाई है।
है दिल्ली की दुनिया में दिल महज एक खिलौना
'अमर' कहां यहाँ ज़ज्बात और कहां यहाँ पुरवाई है।
14.
सब दिन याद रक्खें
.................................
वो आपने दी सीख जो के सब दिन याद रक्खें
फिर जिंदगी ने लीं करवटें सब दिन याद रक्खें।
चाँद छूने की ख़्वाहिश थी बादलों को चीरकर
मिल गया चाँद जा बादलों से सब दिन याद रक्खें।
फिक्र थी कब दुश्मनों की पर आज बेरुख आप हैं
बेरुखी भी तो आपकी सब दिन याद रक्खें।
ये वक्त ना ठंढ़े बदन या दिल के शोले-इश्क़ का
शबनम सी हँसी दे दीजिये सब दिन याद रक्खें।
यूँ तो अपनी बेखुदी पर हँसता है रोज 'अमर'
अब आप ऐसे हँस दिए के सब दिन याद रक्खें।
15.
अहबाबे-दस्तूर
------------------------------------------
इस शहर में अहबाबे-दस्तूर निराली है
रफीक-बावले की कदम-कदम पे रुस्वाई है।
राहे-हस्ती का हमराज बनाया था आपने ही
निभाई ना गई तो अब ये इल्जामे-बेवफाई है।
मस्तूर थी तमन्ना-ए-शोख दिल की खिलवतों में
तोहफा तिरा भी दोस्त क्या सोजे-ज़िगर है।
सुन सुकुत की सदाएं देख दर्दे-निहां हमारा
ये बेरुखी भी आपकी मैने दिल से लगाई है।
दिल की दुनिया में मत पूछ 'अमर' कीमत अपनी
आबे-फिरदौस छोड़ा तूने रस्मे-दोस्ती निभाई है।
16.
गम संभाल रक्खें
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महफिल में गुरेजा किया आपने के सब दिन याद रक्खें
नहीं दी मुहब्बत तो क्या निशाते-कोहे-गम संभाल रक्खें।
मौजे-खिरामे-यार की कशिश हश्र तलक याद रक्खें
ये कस्दे-गुरेज भी आपकी है के सब दिन याद रक्खें।
तलातुम से घिरा तिशना हूँ इजहारे-हाल छिपाए रक्खें
कशाने इश्क़ हूँ तो फरियाद क्यों पासे-दर्द याद रक्खें।
रफू-ए-जख्म ना अब देख चश्मे फुसूंगर याद रक्खें
शबे-हिजराँ की तमन्ना में ऐशे-बेताबी याद रक्खें।
आसा तो नहीं यूं ख़ुद की बेखुदी पे हँसना 'अमर'
मगर आप मुहाल हँसे सारे-बज़्म के सब दिन याद रक्खें।
17.
दिल पारा-पारा हुआ
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क्या हुआ जो पायी तेरे दर पे रुसवाई हमने
दिल पारा-पारा हुआ पर रस्मे-अहबाब तो निभाई हमने।
दस्तूर है ये न देख दिले-बहशी की जानिब
इश्क़ की इंतहां का यही सुरूर इसे दिल से लगाई हमने।
जिगर जला-जला करके मिटाता रहा वजूदे-हस्ती
वैसे भी दो पल के लिए तेरी बाहों की तमन्ना जगाई हमने।
गुंचों से मुहब्बत की है तो खारों की परवाह न कर
सीने से लगा अब परहेज नहीं इश्क़ की रीत बताई हमने।
एतमादे-नजर ही नहीं सीरत भी देख कहते वो 'अमर'
पशेमान हूँ क्या कहूँ सूरते-हुश्न से नजर अभी हटाई हमने।
18.
बेरुह मशीनों सी चल रही है जिंदगी
.........................................................
क्या बेरुह मशीनों सी चल रही है ज़िन्दगी तेरी
या ता-उम्र बे-ठौर ही भगती रहेगी जिंदगी तेरी
ये मकान ये दुकान रिश्तेदारियाँ ठीक हैं लेकिन
कुछ लमहात तो चुरा संवर जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
हाँ रब ने तो नवाजा है फ़ने-आशआर से तुमको
महफिलों को रंग दे खिल जाएगी ज़िन्दगी तेरी
माना कि तेरे हुश्न के क़द्रदान बहुत होंगे मगर
इल्म की कदर कर बदल जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
मंजिले-मक़सूद मिलता नहीं कौनेने-गलेमर की सिम्त
ये इज़ारे-सुख़न है 'अमर' यूँ छूट जाएगी ज़िन्दगी तेरी।
19.
नादानी होगी
.......................
खुद के जज़्बात को ना समझाआपकी ही नादानी होगी
मअरकां-ए-जां ने नाशाद किया ये भी गलतबयानी होगी
संगे-मोती की परख तो मुझे भी कुछ कम न रही हुजूर
ज़ुदा ये बात कुछ सुर्ख-रु-आरिजों की रही मनमानी होगी।
होती शर्ते-वफा नहीं रिश्ता-ए-खूं की भी मेरे रहनुमा
हमराज़ कहो तो हर्फे-अल्फ़ाज को पढ़नी बेजुबानी होगी
इतमीनान रख यूं जिगर होता नहीं किसी का चाक-चाक
बस कोहे-गम की फ़ितरत गम-ख्वार को समझानी होगी।
गर चीख-चीखकर करूँ बयां तो भी क्या होगा 'अमर'
अब भीड़-ए-तमाशाई बनना चौराहे-आम बेमानी होगी।
20.
जब से मेरी ज़िन्दगी में आप आ गए
.......................................................
जब से हुज़ूर मेरी ज़िन्दगी में आप आ गए
ज़िन्दगी ने अपने पते-ठिकाने बदल लिए।
पता न था कि आप मेरी मंजिल थे मगर
गुसले-मौजे-हयात के कायदे सीखा दिए।
पहिले तो मैं बेफिक्र था बेख़ुद भी था जनाब
तारक़-ए-दुनियाँ से अब मुतबिर बना दिए।
फ़ज़ाओं के साथ भटकती थी मेरी रुह भी कभी
बीत चुके अब वो बेदरे-वक्त आप सब सह गए।
शुक्रिया कहूँगा नहीं ये इक एहसास है 'अमर'
देख लीजिये आप आज हम आपके ही रह गए।
21.
हमारी आँखों में आओ तो
.....................................
आँखों में आओ तो बाताएँ तेरी खता क्या है
शोख-हसीनों को रोज सताने की अदा क्या है।
फरिश्ता नहीं दीवाना हूँ यही रहने दो मुझे
बेकरारियों से पूछो कि लुत्फ़े-आशिक़ी क्या है।
महकते हुए अंफ़ास व लरजते हुए अल्फ़ाज़ तेरे
सिरफ़ हमीं जानते हैं कि तेरे आलमे-हुश्न क्या है।
बार-बार जख्मे-ज़िगर ने किया है ख़ुश्क ज़िंदगी
निगाहें आज भी तकती हैं के इशारे-बुलबुल क्या है।
कैसे भूल जाऊँ लहजा-ए-तरन्नुम की गुफ्तगू 'अमर'
ब-हर-तौर वकीफ़े-राज तू खुदा-रा और रक्खा क्या है।
22.
दास्ताँ-ए-जांकनी
.............................
पासबां के कफ़स में गुम-गुस्ता अदम तू
सुन के दास्ताँ-ए-जांकनी चश्म तर हो गया।
सिर्फ हमीं थे शाहिद उलफते-बहम के
मशीयते-फ़ितरत ये अब मुश्तहर हो गया।
ताबिशे-छुअन तेरी नर्मगी हथेलियों की
क़ल्ब में खुशरंग मदहोशियाँ भर गया।
दम-ब-खुद तेरे घर से हम वापिस हुये थे
बिलयकीं फ़र्ते-उल्फ़ते पे आयां हो गया।
अफकार नहीं अब तजलील की 'अमर'
संगमरमरी जिस्म तिरा रूह में ढल गया।
23.
उन हसीन लम्हों ने
.................................
क्या जादू किया हसीन लम्हों ने सदा आ रही आज आपके लिए
दिल मुर्दा पड़ा था फिर धड़कने लगा आज आपके लिए।
आपके पहलू में हूँ क़ज़ा आए फ़िलवक्त कोई गम नहीं
बयां हो रहे ये अब हसीन खयालात सिरफ आपके लिए।
हवाओं के साथ उड़ना व अंगुलियों की छुअन भी ताजी है
शबे-फुरकत ढली आरजू-ए-मुहब्बत आज आपके लिए।
भड़कते जज़्बात ढलकते अंदाज व लरज़ते अल्फ़ाज़ मेरे
जज़्बा-ए-दिल औ मशरुफ़ मन है सिरफ आपके लिए।
फिर आप रुसवा न होंगे जमाने में कभी अब 'अमर'
जर्रा-जर्रा हलाल मजहबे-इश्के-पयाम है ये आपके लिए।
24.
दिल के करीब कोई और है
......................................
तू शरीके-हयात किसी और की मुझे है ये खबर ऐ गुल-बदन
तेरे दिल के करीब कोई और है जिसे सौप दिया तूने जां-ओ-तन।
कर हदें दिल की पार रूह छूने लगी अब तेरे देह की महक
परवाह किसकी खुदाई में अब हो रहा मुकद्दर आजमाने का मन।
दबे होठों सही पयामे-मुहब्बत को आपने भी तो तस्लीम की है
छिन रहा है करार अब चिंगारियों से ही सुलगने लगा मेरा तन।
चुप है जुबा देर से हुजूर आप निगाहों को भी अब सुना कीजिए
मुहब्बत बन गयी जिन्दगी अब मेरी दिल में फूंका का जो है तूने अगन।
डूबा अगर दरिया-ए-इश्क में कयामत का इंतजार किसे है 'अमर'
बर्बादियो का सबब लोग पूछेंगे उनसे जिनमें है मन मेरा मगन।
25.
दीवानों की तरह
........................
सूरते-दीदार दिल तो में ही रह गया यरब
पर लोग देखने लगे मुझे दीवानों की तरह।
मुकर्रर किया वक्त आप ने ही गर याद हो
आपके बिना भीड़ लगी बयाबानों की तरह।
दूंदे-सीगार ही हमदम था मेरी तन्हाइयों का
जले दिल को ही जलता रहा शायर की तरह।
नजरे-गुरेज किया हर पहचाने चेहरे से
घूरते रहे लोग हमें अजनबी की तरह।
कल की गुफ्तगू की तासीर बाकी थी 'अमर'
जमीन से चिपके रहे हम एक बुत की तरह।
26.
उदास दरख्तों के साये में
-----------------------------------
खामोश वादियों की खामोशी का सफर
उदास दरख्तों के साये में सहमी डगर।
परिन्दे भी चुप मेरी तन्हाईयों के गवाह
हुआ करता कभी यहीं हमारा भी घर।
गुजारी है हमने यहाँ महकती हुई शाम
कैसे घुल गया अब इस फिजा में जहर।
बेनूर दिख रही आज हर कली यहाँ की
उजड़ा चमन लगी इसे किसकी नज़र।
बदली नियत बागबां जो बन गए ‘अमर’
ऐ सियासत तुझे इसकी क्या कोई खबर।
27.
गुलों की बहार
------------------------------
गुल को देखें कि देखें चमन में इन गुलों की बहार
मुद्दतों किया है हमने भी इन लमहों का इन्तजार।
दिलकश अन्दाज और कहर ढाती सी नीयत उनकी
मासूमियत से वो गिराती रही हैं हर सब्र की दीवार।
महकती हुई साँसें और लरजते हुए से होठ उनके
चाँदनी बदन की खनक करती है सबको बेकरार।
कत्ल करती शोखियों का चल रहा है ये सिलसिला
भड़के हुए जज्बात को तन्हा मुलाकात की दरकार।
वो खुदा का नूर 'अमर' अब, लुटने का किसे होश यहाँ
इश्क-ए-रूहानी कायनात अपलक करता रहा दीदार।
28.
ऐ जिन्दगी
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चहक-चहक कर जीना है तुझे ऐ जिन्दगी जी भरकर
छक-छक कर पीना रस तेरा ऐ जिन्दगी जी भरकर।
पास आ रही मौत को भी आज ही कह दिया है मैनें
लौट जा यहाँ से तुम फासले बना अभी दूर रहकर।
अभी तक तो है बसेरा चाहने वाले दिलों में ही मेरा
अनगिनत हाथ खड़े हैं आज दुआ में कवच बनकर।
पुतलियों की कोर से यूँ जब कभी छलक जाते आँसू
चूम लेते हैं वो उन्मत्त होठ झट से उन्हें आगे बढ़कर।
मौत से मिलन की वो घड़ी जब कभी आएगी 'अमर'
सीने से लगा लेंगे उसे लिपट जाएंगे तब बाहें भरकर।
29.
चराग जलाकर आया हूँ
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लम्बी स्याह रात में इक चराग जलाकर आया हूँ
मौत के आगोश से जिन्दगी को छीनकर लाया हूँ।
विवश-बेचैन हो जो उमड़े थे मजबूरियों के आँसू
प्यार की जुम्बिशों से आज उन्हें सोख आया हूँ।
चलो चलें गांव अपने अभी जिन्दगी जिन्दा है वहाँ
कई बरस पहले जहाँ कुछ शरारतें छोड़ आया हूँ।
दिखाया न तुमको कभी दरकती छत की टपकती बूंदें
लेकिन खिलती है जिन्दगी यहाँ ये राज बताने आया हूँ।
कोहरा घना है माना पर 'अमर' नहीं छिपता उजाला
बादलों को चीर निकलता आफताब देखने आया हूँ।
30.
दिल खोलकर मिले
----------------------
दिल खोलकर मिले थे मिलके बातें बहुत की
कुछ हाल-हाल की बातें कुछ बीते दिनों की।
सियासत किसी को तो रास आती नहीं थी
तो बातें दुनियादारी की बातें जिम्मेदारी की।
दिल के चिथडों को सफाई से छुपाया था सबने
झूठी खुशियाँ जताने को सबने बातें बहुत की।
उम्र भर संजोकर सबने रखी थी जतन से
कभी फुर्सत से होगी सबसे गुफ्तगू दिलों की।
फुर्सत किसे आज 'अमर' दिल की बातें सुने कौन
सिमटी है जिन्दगी खुद में ये फितरत जमाने की।
31.
सुबह का ये सूरज
--------------------------
सुबह का ये सूरज तुम्हारे लिए है
सुबह का ये सूरज हमारे लिए है।
उदासियों की शामें बीती कहानी है
सुहाना सफर आज हमारे लिए है।
झूमती पवन संग कूक रही कोयल
रुत भी गा रही गीत हमारे लिए है।
रहनुमा ही वतन के लुटेरे बन गए
चमन की गुहार ये हमारे लिए है।
जमीं सुर्ख आज 'अमर' अपनों के खूँ से
कुर्बानियों की सदाऐं अब हमारे लिए है।
32.
भुलावे में रहा करते हैं
-----------------------------
हमें तिनका समझकर अक्सर वो भुलावे में रहा करते हैं
"पठार का धीरज" के माने भी कुछ लोग नहीं जाना करते हैं।
गुमां बहुत है उनको बहती हुई दरिया को बाँध लेने का
उन्हें क्या पता समन्दरों के तूफान मेरे सीने में पला करते हैं।
खून का ईंधन जलाकर लोगों को मंजिल तक पहुँचाने वाले
अंधे-विकास की आँधियों के दौर में भी भटका नहीं करते हैं।
उनके नखरे मुद्दतों से बेबशी में उठाते चले आ रहे हैं लोग
याद रख गाड़ी के पहिये कभी दलदलों में नहीं चला करते हैं।
एक दीया ही काफी है 'अमर' अंधेरों को भगाने के लिए
मेरे आँगन में रोज सुबह-शाम सूरज और चाँद आया करते हैं ।
33.
दर्द हुआा करता है
________________
बेतहाशा बदहवास बेसुध भागते हो तो रश्क नहीं दर्द हुआ करता है
अच्छी तरह वाकिफ हूँ कि लड़खड़ाने से सिर्फ हादसा हुआ करता है।
दिल की गहराईयों से बंद आँखों में झांककर कुछ टटोलो तो सही
मन की आँखों का रिश्ता अक्सर दर्दे-दिल से जुड़ा हुआ करता है।
सिर्फ हवादिशें नहीं थी वह खुद खुदा का ऐतबार भी था मुझपर
जज्बा-ए-जुनूं-ए-कायनात उसका मुझसे ही तो उजागर हुआ करता है ।
जल जंगल जमीन की दौलत से लाख तिजोरी भरते रहो उनकी लेकिन
कोयला दबकर कभी कोहिनूर तो दहककर कभी अंगार हुआ करता है।
जख्मे-जिस्म भूलकर जमाने भर का जहर रोज तुम पीते रहो 'अमर'
हयाते-दहर को बचाकर ही कोई युगों-युगों से नीलकंठ हुआ करता है ।
34.
तो कोई बात बने
--------------------
जम्हूरियत के उजाले फिर से दिखालाओ तो कोई बात बने
जहर बुझी मीठी छूरी की चिता सजाओ तो कोई बात बने।
फतह की धूल उड़ाते रहे लहराती शमशीर के बल लोग
सहमे हुए दिलों को जीत के दिखाओ तो कोई बात बने।
फ़रेबी-कंधों के सहारे चलती है नफ़रतों की सियासत
तुम आदमी बनकर भी कभी आओ तो कोई बात बने।
चक्की की तरह पिसती खुद को घिसती रही जो ता-उम्र
हँसती हुई माँ की तरह अश्क छिपाओ तो कोई बात बने।
मुर्दा तवारीख अटी पड़ी है कत्लो-गारद के फ़सानों से 'अमर'
अबके सावन मुहब्बतों के गुल भी खिलाओ तो कोई बात बने।
35.
कातिल तेरी अदाएँ
......................
कातिल तेरी अदाएँ शातिर तिरा मुस्कुराना
पहलू में छिपा खंजर दिल से दिल मिलाना।
मिजाज कुछ शहर का कुछ असर तुम्हारा
खुशी मिली मुझे भी के मौजूं मेरा फसाना।
फितरत तेरी समझकर सभी हँस रहे अब
मिलकर तेरा हमीं से यूँ हाले-दिल सुनाना।
सबको खबर हुई मुश्किल में आज तुम भी
फिर करीब आने का खोजते नया बहाना।
खुदा की ईनायत 'अमर' ईमान तेरा गवाह
जख्म भरे तो नहीं पर गैरों को मत रुलाना।
36.
इक ठहरी हुई सर्द शाम
................................
इस गुलाबी शहर की थी वो इक ठहरी हुई सर्द शाम
दिल की पाती से जुड़ा था शबनम सा तेरा नाम।
थम सा गया था वक्त यारो ये रुत भी मुस्कुराने लगी
खनककर चूडियाँ दे रहीं थीं प्यार का पैगाम।
जिन्दगी ले चुकी थी करवटें पर पतंगा मिटता ही रहा
इश्क में ता-उम्र शम्मा धू-धू जलती रही गुमनाम।
कैसे निकाले बूँद मकरंद की बिखरे हुए परागों से कोई
मोहब्बत फसाना बन धुआँ होती रही सरे आम।
मिटा न सकी गर्द गुजरे जमाने की 'अमर' बहकती यादें
लटकते गजरों को महकती सांसों का ये सलाम।
37.
जिन्दगी के क्या कहिए
...............................
टुकड़ों में बँटती है रोज लुटती सी इस जिन्दगी के क्या कहिए
सच को सौदा बना रहे हैं लोग जहाँ ऐसे डेरों के क्या कहिए।
शिद्दत से तो पूछे कोई उनसे महकती हुई इस शोहरत का राज
मुंसिफ ने सुनाया हुक्म जब फिर उसकी रंगत के क्या कहिए।
खुदा से कमतर क्यों समझे कोई जों पास हो दरिन्दों की फौज
मासूमों पे कहर बरपाते हुऐ शैतानों की नीयत के क्या कहिए।
फरिश्ता कहते हो तुम उसको जो करता इन्सानियत का खून
सजदा करे चौखट पे हाकिम तो हालाते-मुल्क के क्या कहिए।
बिरहमन को गरियाने के रस्मी रिवाज से क्या होगा 'अमर'
धर्म की धज्जियाँ जो उड़ाते हैं उन हुक्मरानों से क्या कहिए।
38.
धरम का धंधा है फिर ऊफान पर
..........................................
धरम का धंधा है फिर ऊफान पर खूब बिकते देखा है
शुक्रिया भक्तो राक्षसों को भी भगवान बनते देखा है।
वक्त का फैसला भला कौन टाल सका आज तलक
पुजारियों की औलाद को भी दरबान बनते देखा है।
प्यार का गुलिस्ताँ भी अब मैदाने-जंग बनने लगा
फूलों को अपने आँगन में धू-धूकर जलते देखा है।
इंकलाब की कश्ती पर चढ़के जो हुक्मरान बन गए
सरे आम उनको जातियों का सरदार बनते देखा है।
अँधेरों को चीरकर जो जहां रौशन करते रहे 'अमर'
सच के लिए उनको मीरा वो सुकरात बनते देखा है।
39.
सितारे खूब मुस्कुराने लगे
...............................
थका सा आफताब देख सितारे खूब मुस्कुराने लगे।
अँधेरी रात की वो तूफानी हवा साये भी डराने लगे।
दिन के उजाले में जो रोज छिपते रहे ऊल्लू की तरह
अँधेरे में जुगनू बनकर वो हर तरफ टिमटिमाने लगे।
कोहरे ने ढक लिया जैसे भोर की चढ़ रही ललाई को
विवश बेचैन हो परिन्दे भी फिर कोहराम मचाने लगे।
किसी ने देखा ही नहीं मजबूर उन आँखों की कसक
बावले हो गए लोग जो जीत का परचम लहराने लगे।
बाज आए नहीं आज भी 'अमर' फतवा ही सुनाते रहे
पर संभलना जरा तुम वो प्यार फिर अब जताने लगे।
40.
फ़िक्र साझी विरासत की
.................................
फिक्र साझी विरासत की थी सब रंजो-गम हम भुलाते रहे
दी गैरों को हँसी बेफिक्र और अपनों को हम रूलाते रहे।
वो दिल के करीब था न था अब क्या बताऐँ राज सबको
पता ना था के खुद के हाथों चरागे-बज्म हम बुझाते रहे।
बार-बार छलकता तो रहा सब्र का पैमाना ऐ नूरे-हयात
मगर बेचैन दिल से हर हाल आपको ही हम बुलाते रहे।
आसां नहीं था जज्ब करना सहमी हुई सी इक मजबूर हँसी
सबको है पता अस्मत खुद की ही रोज-रोज हम लुटाते रहे।
मुर्दों को सुकूँ वहाँ भी न था जमीं-आसमां मिल रहे थे जहाँ
बेखौफ़ "अमर" खूँ के छींटे तेरे निज़ाम में यूँ हम उड़ाते रहे।
41.
शोर ही सफलता का पैमाना बन गया
--------------------------------------------
शोर ही सफलता का पैमाना बन गया
दहकता हुआ अंगार भी धुआँ बन गया।
वक्त के निशाने पे बेखौफ चल रहा था
कल था जो शूरमा अब तारीख बन गया।
हैरतअंगेज थी रंगते-काफिले-शानो-शौकत
बहकती हवा में जिस्म का मकां बना गया।
कौन कह रहा है के हो गई मुकम्मल फतह
दुबककर खड़ा था जो अब ढाल बन गया।
जमीं से आसमां तलक शोर जश्न का ऐसा
आँधी-गर्द-गुबार ही 'अमर' अश्क़ बन गया।
42.
निराला है ये जिंदगी का सफर
---------------------------------------
निराला है ये जिन्दगी का सफर
नहीं तन्हा रही कभी इसकी डगर।
हुई बातें बहुत ही हालाते-मुल्क की
भक्ति-वफादारी बन गई अब जहर।
चिल्ल-पौं मची आज चारों तरफ है
शोलों पर चलो तो कुछ होवे असर।
मुकद्दस जमीं जब वतन की पुकारे
जवानी को कैसे कोई रक्खे बेखबर।
लहराई थी बेशक उम्मीदों की पौध भी
पर बातों से बदली ना तकदीर ‘अमर’।
43.
तुम्हारी ही धड़कनों के साथ धड़कती है
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तुम्हारी ही धड़कनों के साथ धड़कती पूरी कायनात
तुम्हीं हो जो महका करती खुदाई में खुशबू सी सारी रात।
हवादिसें भी हारकर फ़ना राहे-जिंदगी से हुई
हसीन उल्फते-तखय्युल में हमने गुजारी सारी रात।
मखमली लिबास में उतरी वो सुर्ख-सफेदी सी हया
पलकों में छिपी चश्मे-तसव्वुर कटी आँखों में सारी रात।
रिश्ते मासूम-दिलों के जुड़ते रहे जिस चमन में कभी
हमसफर-महबूब कहाँ है वहाँ अब फैली सूनी सारी रात।
उम्र भर तकते ही रहे “अमर” पाकीज़ा कदमों के निशाँ
बेखुदी में बुदबुदाते गए रिन्दानों की तरह सारी-सारी रात।
44.
इठलाती नदी में भी छटपटाहट देखी हमने
-----------------------------------------------------
इठलाती नदी में भी छटपटाहट देखी हमने
बदलते हुए गाँव की शाम में अकुलाहट देखी हमने।
चाँद छूने के अरमान पाल रक्खे थे लेकिन
युवा दिलों में बेरोजगारी की छटपटाहट देखी हमने।
कल थे तीसमार आज पिट गए सरे-आम
चुप्पी की हँसी में भी खिलखिलाहट देखी हमने।
बर्फ का पहाड़ खड़ा था रिश्तों के दरमियाँ
साँसें टकराई तो धड़कनों में गरमाहट देखी हमने।
लोग वही पुराने लेकिन रवायत नई "अमर"
पुरवाई हवा में अब फिर से सरसराहट देखी हमने।
45.
दिखा नहीं गाँव
---------------------
बहुत देखा बहुत खोजा पर दिखा नहीं गाँव
मकाँ वो दरख्त बहुत पे दिखती नहीं छाँव।
पगडंडियाँ खो गई कहीं रास्तों की भीड़ में
दिन-रात हम चले लेकिन मिली नहीं ठाँव।
थी चाहत चाँद छूने की और मन बेलगाम
बहकती फज़ाओं में रिन्दानों के पड़े पाँव।
बाजीगरी के जलवे उन हवाओं में तैरते थे
चुपचाप खेलता था हर शख्स कोई दाँव।
सब चीखने लगे हँसते हुए अचानक "अमर"
रोक-टोक नहीं किसी अजूबे सफर पे गाँव।
46.
जाँ नहीं गोस्त ही दिखलाई दिया मुझको
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जाँ नहीं गोस्त ही दिखलाई दिया मुझको
सबने यूँ तो दीन की तरह जिया मुझको।
बेजुबान मैं भी नहीं पर उस हवस का क्या
अजाने कई सायों ने दबोच लिया मुझको।
मिमियाती हुई आवाज जो निकली थी मेरी
जयघोष के कफन में लिपटा दिया मुझको।
भगवान मजहबी इन्सान से जो पड़ा पाला
तेरे नाम पर ही सबने बलि किया मुझको।
गर्दनें सभी कटतीं रहीं सामने ही "अमर"
फब्बारा-ए-खूं ने संगदिल किया मुझको।
47.
जुबां चुप निगाहें बोलती हैं
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जुबां चुप निगाहें बोलती हैं देखकर कुछ सुना कीजिए
खामोशियाँ ही ताकत बन गई है दिल से दुआ दीजिए।
वीरान से ग़ोशों को गज़रों से महकाया है आपने ही
गुलिस्ताँ में उमंगों के फूल अब फिर खिला दीजिए।
श़िद्दत से जोड़ा शीशा-ए-दिल महताब़े-पूनम ने बार-बार
दौड़ने लगी है ज़िंदगी फिर से खुशियों की सदा दीजिए।
मुहब्बतों में हसरतों की ताबीर हम खुद बन गए हैं
सुकूँ रुख़सत हो रहा है मासूम पे दिल लुटा दीजिए।
भाग ही जाती हैं आखिर हवादिसें जिंदगी से “अमर”
ता-उम्र लड़ने की मशाल एक बार बस जला दीजिए।
48.
मौसमे-गुल को भी ऊल्फ़त सिखलाई हमने
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मौसमे-गुल को भी ऊल्फत सिखलाई हमने
सुर्ख-रु आरिज़ों की आरज़ू जतलाई हमने।
बेरूह गिला करना अब ज़ुल्मते-जहराव की
बलानोश बन गया अफ़सुर्दगी बचाई हमने।
खूँ-ए-सवाल खंद-ए-दिल याद आते ही रहे
ऐज़ाजे-मसीहा तलक बात पहुँचाई हमने।
तीन-तेरह के हिसाब में उलझी रही जिंदगी
सदा-ए-मुफ़सिली तुमसे ना बतलाई हमने।
हर बार आता नहीं दहर में अज़ल चुपचाप "अमर"
अँधेरों में शम्मा चलकर आई रंगत दिखलाई हमने।
49.
नज़रें मुस्कुराकर चुराने लगे
------------------------------------
तन्हाईयों में आपसे नजरें मुस्कुराकर चुराने लगे लोग
रुसवाइयों का जश्न सरे-ब़ज्म बेफिक्र मनाने लगे लोग।
अब तो ले आ फिर पैमाने-वफा ता-ब-लब ऐ नूरे-हयात
अहदे-वफा यूँ सहरो-शाम सज़दा कर जताने लगे लोग।
चन्द लमहात की गुफ्त़गू से मचल गया जो दिल मिरा
अफ़सोस गेसूओं को अदा से फिर लहराने लगे लोग।
बावला है दिल गहराईयों में डूबकर देखो ऐ तबस्सुम
इश्क-इंतहा तेरे रूह की परछाईं है बताने लगे लोग।
किसी फरियाद का हक़ ड्यौढ़ी पर नहीं हुजूर
उल्फ़ते-आशिकी है "अमर" खुद को ही लुटाने लगे लोग
50.
मत कर गिला जफा का
---------------------------
मत कर गिला ज़फा का बदला फिर दौरे-जमाना
कल की बात बिसरें हम अब गाएँ नया तराना।
पल-पल रंग बदलते किसी गिरगिट की फिक्र मत कर
सयाने संग मासूम भी यहाँ मन में हरदम ये बसाना।
कुदरत की बात करते हर रोज दरख्तों को काटकर
जंगलात उजाड़ उनको है सींची झाड़ियां दिखाना।
कुछ तो पता है हमको भी फितरते-हुकूमत की रंगत
कल शागिर्द रहे जो हमारे आज तुमसे वफा जताना।
वाकिफ हैं आप भी तो मेरी तबीयत से मेरे हाकिम
कोहे-गम में 'अमर' अक्सर पासे-हयात ढूंढ लाना।
51.
छलांग लगाकर तो देखो
.................................
उफनती नदी मटमैली बाढ़ है धार में छलांग लगाकर तो देखो
तासीर जवानी की बंद हैं आँखेँ अँधेरी सुरंग जाकर तो देखो।
ज़िन्दगी की जंग जीतने का ज़ज्बा अब रूमानी कहानी नहीं
आभासी दुनिया में भी खुशी है अपनों को ढूँढकर तो देखो।
नौजवानों के कंधों पर है हालाते-मुल्क बदलने का ज़िम्मा भी
बहकाया जो करते चेहरे उन्हें गौर से तुम पहचानकर तो देखो।
खामोश निगाहें भी बोली शराबी आँखों में तैरता रूहानी सुकूँ
बदली फिजा है उम्मीदों को तुमभी फिर से सजाकर तो देखो।
जलजला आ रहा मची चीखो-पुकार पर थिरकते मस्ती में लोग
बेहयाई से झूमे जमाना मगर "अमर" उनको जगाकर तो देखो।
52.
भटकते हुए खयालात हैं कि चाहतों की बरसात
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भटकते हुए खयालात हैं कि चाहतों की बरसात
अधमुंदी पलकों की हुई अलसाई भोर से मुलाकात।
परछाई ढूँढती रही वही बिछड़ा हुआ ठिकाना
खुद को ही बाँटता रहा बनके बेबसी की सौगात।
मुझसे सवाल करती रही मेरी ही सर्द साँसें
भटकती हुई रूह चुन रही बिखरे हुए लम्हात।
हँसते रहे अश्क़ सुस्त धड़कनों से खेलकर
सहरा-ए-जिस्म देख भड़के ठहरे हुए ज़ज्ब़ात।
चलकर आया समंदर दरिया से मिलने गाँव
खो गया चाँद 'अमर' ढूँढता आफताब सारी रात।
53.
आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
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आपका कहा अनकहा हम कैसे करें
सोचते आप क्या बयाँ हम कैसे करें।
कहते हैं सभी कि सियासी कथन है
डँस रही जिंदगी जुदा हम कैसे करें।
सियासत चढ़ी बनकर दिमागी बुखार
धड़कनें बढ़ गई हैं बंद हम कैसे करें।
मुश्किल से सीखा है नज़रों को मिलाना
अपनी ही नज़र से जफ़ा हम कैसे करें।
दिल है तड़पता सिर्फ उलफत ही में नहीं
चू रहे अश्क 'अमर' जाया हम कैसे करें।
54.
दह़ान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
----------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
दहान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
अज़ीब सुकूँ फिर से मिलने लगा।
ज़िगर चाक-चाक होता रहा लेकिन
शब़-ए-ग़म से बेखौफ गुजरने लगा।
ज़र्द पड़ गए ज़िस्म की पासबानी ये
रूहे-फ़ना को कब़ा से लपेटने लगा।
भटके हैं उम्र भर दिल्ली की सड़कों पे
पहचान सदा-ए-ज़रस की करने लगा।
न पढ़ा हर्फे-इबारत नसीब की 'अमर'
करीब को यूँ करीब से समझने लगा।
55.
उनकी तो है बात अलग
------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल- 9871603621
उनकी है हर बात अलग और है आवाज़ अलग
बयाँ करें क्या उनका मुखातीबे-अंदाज़ अलग।
हक़ जताकर टोकते और पूछते भी हैं वो हरदम
बिंदास उनकी दोस्ती रिश्ता-ए-आगाज अलग।
बंद कर आँखेँ सुनते ग़ज़ल फ़िर कहते लाजवाब
छू गए अशआर हैं सुखनवर के अल्फ़ाज़ अलग।
अक्सर जताते वो नामुमकिन नहीं लांघना पहाड़
हार जज़्ब करने वाले भी होते हैं जांबाज अलग।
निकालते संगीत सुरीला टूटे हुए साज से 'अमर’
झूमकर गाते ग़ज़ल ज़िदगी के सब राज अलग।
56.
ढूँढ नहीं पाया उनको
--------------------------
उम्र भर साथ चलते रहे लेकिन ढूँढ नहीं पाया उनको
बसते तो रहे तसव्वुर में मगर देख नहीं पाया उनको।
उड़ाते रहे सुकून से रोज वो अरमानों की राख़ खुद ही
फड़कते लबों ने बिखेरी खुशबू देख नहीं पाया उनको।
सहमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों-संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
चराग़े-लौ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको।
57.
रौशन दरो-दीवार थी
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रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
वख्त की मार पड़ी ऐसी कि न नसीब है मिट्टी का दीया।
चौखट व दालान उजियाते रहे वर्षों खून से जलकर चराग़
फूँकते दौलत बेशुमार शान से वो जलाते रहे घी का दीया।
एक दौर था कभी मिटती न थी रौनक उस कूचे की कभी
गुलाम भी जलाते रहे उनकी इनायत से उधारी का दीया।
जमीं बाँट ली सरहदें बनाकर चलता रहा सितम का खेल
जाँबाज़ भी जलाते रहे क़त्लो-गारद बदगुमानी का दीया।
हालते-मुल्क बदला आबो-हवा बदली बदल गए हुक्मरान
नवाबों को जलाते देखा तरसती आँखों से पानी का दीया।
हर साल आती दीवाली 'अमर' दिये भी जलते हैं हर बार
इस बार जलाओ दिल में इन्सानियत की बाती का दीया।
हमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों के संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
लौ-ए-चराग़ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको
58.
जब भी कदम उस ओर बढ़े
-----------------------------------
जब भी कदम उस ओर बढ़े कोई बीच डगर क्यों आता है
होती है सुबह जब यादों पर फिर से अंधेरा सा छा जाता है।
भूलूँ कैसे उस दिन को भी जब भाग मिले तुम मेरे सीने से
कैसे मिटाऊँ यादों का घरौंदा हरपल जो फिर भरमाता है।
अब शाम हुई तारे भी चमके रजनी चली करने को सिंगार
बिजली चमकी तो सुधियों में आकर रूप तेरा लहराता है।
चाँद भी रूठा चाँदनी सिसकी और शबनम की बौछार हुई
भोर ने जबसे देखा तुमको मन अंदर तक अब पछताता है।
कैसे कहें जाकर उनसे कि ऊसर मिट्टी में उगी दूब 'अमर'
देखकर बढ़ता प्रेम का बिरुवा दिल अपना अब इतराता है।
59.
पहले से थे करीब जब करीब और आ गए
----------------------------------------------
पहले से थे करीब जब करीब और हो गए
नज़दीक से देखा तो हमसे वो दूर हो गए।
पास रहते रहे मग़र बनी रहीं दूरियाँ जनाब
जख्म़े-ज़िगर देकर वो भी यूँ मश़हूर हो गए।
लुत्फ़ ले रहे सब पढ़कर हर्फ़े-दर्दे-दिल मेरा
कुरेदा पुराने घाव जो सिरफ़ नासूर हो गए।
गूँज़ती रही चुप्पी मुस्कुराते रहे होंठ उनके
समां ऐसा के शेर कहने को मजबूर हो गए।
मश़गूल सभी खुद में कुछ मश़रूफ भी रहे
बदला तो नहीं कुछ बदनाम जरूर हो गए।
'अमर' उस्ताद बन रहे वही जो मुरीद़ थे तेरे
बदलती आब़ो-हवा में सबको ग़ुरूर हो गए।
60.
लोग हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैंं
--------------------------------------------------------
लोग तो हमेशा से धरम के मरम में जीते चले जाते हैं
डूबते हुए सूरज को भी वो श्रद्धा से दीया दिखाते हैं।
देख लो खोलकर आँखें तुम दीनो-धरम के ठेकेदारो
चीखते रहो लेकिन हम ही पूजा का अर्थ जतलाते हैं।
कुदरत लुटाती रही नूर सब पर खुदा की कायनात में
और इंसान आज आबो-हवाओं का भी दिल दुखाते हैं।
कचरा फैलाते नव-दौलतिया पागलपन के इस दौर में
सर्द पानी में खड़े लोग सुबह का उजाला ढूंढ लाते हैं।
रोज करते जुमलों से विकास हालते-मुल्क की रहनुमा
मगर साफ कर गंदगी आम आदमी उम्मीद जगाते हैं।
पहनकर नाकभर सेंदूर वो दुआ में उठाते रहे दोनों हाथ
जिंदगी तो जश्न है 'अमर' हर पल उमंगों के गीत गाते हैं।
61.
जब भी खिलों फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
-----------------------------------------------------------------------
जब भी खिलो फूलों की तरह खुशबू सा समा लेना मुझको
गर बिखरो बन पराग-कण रस-मकरंद बना लेना मुझको।
फैलो जब बरगद की तरह छाया बनना तुम पथिक के लिए
तन-मन शीतल करने को मंद समीर सा बुला लेना मुझको।
दरिया की तरह इठलाओ तुम हर पल गाओ बढ़ते जाओ
बीहड़ में जों चट्टान मिले तो बर्फ़ सा पिघला लेना मुझको।
झील सी गहरी इन आँखों में जब डूबा जाए युग का यौवन
खुद से मिलने की खातिर तुम मुझसे ही चुरा लेना मुझको।
ख्वाबों में ही तुम जब खो जाओ और गरम साँसें भी निकले
दिल के धड़कन की सरगम का बना राग बसा लेना मुझको।
जब भी खुद को ढूँढा मैने हर बार 'अमर' तेरा अख्श दिखा
पर कट गई उम्र ना खोज मिटी आँसू सा बहा लेना मुझको।
62.
किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
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किधर से चली जिन्दगी किधर जा रही है
ना मालूम कहाँ से ऐसी जिया आ रही है।
देखता हूँ सब कुछ पर कुछ दीखता नहीं
आफताब चढ़ रहा उधर घटा छा रही है।
कल कुछ भी नहीं था आज भी कुछ नहीं
किसको पता हवा भी सौगात ला रही है।
जिस्म मचलता रहा और जिगर जल गया
आग को आग अब किस कदर खा रही है।
रोने की सूरत में भी हँसने की आदत उसे
गम और खुशी के गीत बेफिक्र गा रही है।
समा क्या अजब 'अमर' कुछ सूझता नहीं
अंधेरे-उजाले की ये रंगत गजब ढा रही है।
63.
शेर कहने की जबसे आदत बन गई
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शेर कहने की जबसे आदत बन गई
वक्त की हर शै ही इबादत बन गई।
लमहा-लमहा जीने का सुरूर आ रहा
लमहा-लमहा मरना किस्मत बन गई।
पीता हूँ जब भी तो बढ़ जाती है प्यास
पीयेे बगैर जिंदगी ही मुसीबत बन गई।
तन्हा कोई पीता कोई पीता भरे-बज़्म
पीये बिन गुफ्तगू एक हसरत बन गई।
अपने-अपने हिस्से का पी रहे हैं सभी
कतरा-ए-ग़म पीने की फितरत बन गई।
पीने की ख़्वाहिश में बेचैन तुम 'अमर'
अश्कों को पी लेने की चाहत बन गई।
64.जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
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जिन्दगी जीने की तुम्हें ललक बढ़ गई है
फिर से आज पीने की चसक बढ़ गई है।
फैली हुई आग फिर भी हर तरफ अँधेरा
धुआँ में घर बनाने की सनक बढ़ गई है।
हाथों में हाथ डाल बैठते जो साथ-साथ
आँखें अब दिखाने लगे चमक बढ़ गई है।
नफरतों के घेरे में कैद हुई जिंदगी जबसे
खत्म हुई शर्मो-हया व ठसक बढ़ गई है।
छूकर आती रही उनको ये महकती हवा
बहारो रुक दिलों की कसक बढ़ गई है।
पीना ही पड़ेगा 'अमर' जहर भी जों लाएँ
तैरती हुई सांसों की भी महक बढ़ गई है ।