पूरे देश की जनता के साथ अप्रैल फूल ही तो मनाया जा रहा है.इसे लोकतंत्र का महापर्व कह लो या चुनावी महासमर या फिर लूट का एक और मेला.जनता -जिसकी सब दुहाई देते हैं,जनता के जिस वोट के बल पर सरकार बनती है,जनता -जिसे लुभाने में सभी पार्टियाँ दिन -रत एक कर रही है,वह जनता वास्तव में है कहाँ?जाता तो माल की तरह है जीसी सिर्फ़ ख़रीदा और बेचा जाता है.जनता से पैसा लूटा जाता है ,पैसा लगाकर जनता जुटी जाती है,पैसा लगाकर जनता से आन्दोलन खड़ा कराया जाता है,गोली खाने को भी जनता को ही आगे कर दिया जाता है.इस मेले में जनता ही है,बस उसकी कमान वाला वह पीछे बैठकर कठपुतलियों की तरह सबको नाचता रहता है.कठपुतली के इस खेल में शामिल होने के लिए भी जनता ही उमड़ती है.कैसे बदलोगे यब तुम?पर तुम्हे तो बदलना होइस खेल का नियम.इस खेल में शामिल होकर--इस खेल का नियम बदलना होगा तुम्हें--तभी तुम्हारी योजना सफल होगी अमरनाथ झा. इसमे तुम्हे किसका साथ मिलता है और कौन विरोधी है इसकी पहचान तुम्हे करनी ही होगी अमरनाथ झा.पूज्य पिताजी "पंकज जी" की पंक्तियाँ क्या कहती है जरा गौर करो--
अभी जो सामने से बंधू बन आता
उर को खोल कर है प्रीत दिखलाता
वही तो पीठ पीछे बंधू का घाती
वही तो पीठ पीछे
मृत्यु संघाती
किंतु कितनी बेखबर हो गयी यह दुनिया
के इसपर
आज भी परदा दिए जाती?
बुधवार, 1 अप्रैल 2009
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