आख़िर कब तक तुम सहोगे?चुनाव--२००९ के प्रथम चरण में १९ लोग मारे गए,जैसा की अखबार बताते हैं.जब पूरी चुनावी प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तब क्या होगा?इतना बड़ा देश---ये तो छोटी -मोटी बातें होती रहती हैं, यही कहेंगे न आप लोग!जब चुनाव नहीं होता है , तब भी तो रोज-रोज लोग मरते हैं.फिर अभी लोग मरते हैं तो क्यों स्यापा कर रहा हूँ मैं.ठीक कहा आपने.पर क्या करुँ.मैं चुप तो रहना जानता नहीं हूँ.भो सकता हूँ,चीख सकता हूँ ,दहाड़ भी सकता हूँ,और स्यापा भी कर सकता हूँ की लोग कम से कम सुने तो.जानता हूँ ,आप भी विवश हैं--आख़िर सब तो एक जैसे ही हैं.शकल अलग -अलग है,झंडा अलग-अलग है , लेकिन लोग तो वही हैं न.हर पार्टी के मठाधीश टिकट बनते समय देखते हैं की कौन बाहुबली है , कौन धनबली है तथा कौन कितना बड़ा धंधेबाज है.तो हम आम लोग कर ही क्या सकते हैं?लेकिन अगर यही बात गाँधी जी ने भी सोची होती तो?भगत सिंह क्यों फाँसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूल गए?सुभाष ने क्यों दी कुर्बानी?
इतिहास को जानने वाले जानते हैं की हर दौर में ऐसा होता है की समाज की आसुरी शक्ति एक-दूसरे से लड़ती भी है,पर रक दूसरे को बचाती भी है.सारी व्यवस्था पर अपना ही कब्जा जमाए रखना चाहती है, पराणु अंततः मानवी शक्ति के आगे आसुरी शक्ति को हारना ही पड़ता है। बस जरूरत है मानवी शक्ति के उठ खड़ा होने की.इसलिए जो में लिख रहा हूँ उसे मात्र स्यापा या विलाप न समझो,यह तो ह्रदय की आवाज ही,जो तुम्हारे कानों में देर तक गूंजती रहेगी.तुम चाहो न चाहो तुम्हे इस आवाज को सुनना ही पड़ेगा.फिर आना मेरे पास और पूछना की बताओ क्या करना है, कहाँ जाना है? और तब मैं कहूँगा महात्मा बुद्ध की बात को समझो की उन्होंने क्यों कहा था की अपना दीपक स्वयं बनो.
रविवार, 19 अप्रैल 2009
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विचारणीय पोस्ट।
जवाब देंहटाएंउनमे से लगभग आधे तो मेरे छोटे से प्रदेश छतीसगढ के हैं।अच्छा सवाल किया है आपने। आखिर कब-तक़?
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