सोमवार, 27 अप्रैल 2009

हाँ ये वो मंजर तो नहीं.....( धारावाहिक )

हाँ यह मंजर पहले कभी नही देखा....
" मुझे याद नही आता कि पिछले किसी चुनाव में लोगो की इतनी दिलचस्पी रही हो " ये शब्द हैं खुशवंत सिंह जी के , आज के हिंदुस्तान समाचार पत्र में ,आज के हिन्दुस्तान की चुनावी गहमागहमी पर। सहसा ऐसा लगा जैसे किसी ने पुरानी तस्वीर रखी हो सबके इसी ,नई परिस्थिति को समझने के लिए । इसी के बरख्श इ बी एन ७ के प्रबंध सम्पादक आशुतोष के आज के लेख की पंक्तियों को रखता हूँ "ये कहा जब सकता है कि देश कि राजनीति की दिशा बदल रही है , वोटर समझदार हो रहा है ,एक नई सिविल सोसाइटी खड़ी हो रही जो नेताओं की जबाबदारी को तय करने के लिए तैयार है..." यानी अब चुनावी मंजर बदलने लगा है ।जी हाँ इसमे कुछ तो सचाई है ही ।मुझे १९७४ के पहले के दौर की बातो की स्मृति नही है ,१९७१ के भारत-पाक युद्ध के समय गाँव के चौराहे पर सर्द शाम में धंधा तापते (अलाव सेंकते )हुए कुछ बुजुर्ग चेहरों की हलकी -धुंधली छाया दिखाती है ,जो भारतीय सैनिकों पर गर्व कर रहे थे .फिर १९७४ के दौर के जे पी आन्दोलन की याद आती है की किस तरह उस समय के सभी नौजवान ,इंकलाबी हो गए थे.मेरे बड़े भाई ने तथा मेरे छोटे बहनोई ने भी दुमका में प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था और पुलिस द्वारा खदेडे जाने के बाद पिताजी का नाम लेकर aपनी जान बचाई थी .मेरे चचेर भाई और उनके तीन साथियो की मेट्रिक की परीक्षा बहुत ख़राब चली गयी और वे आंदोलनकारी बन गए ,जेल चले गए.इनमे से एक कभी कांग्रेस,कभी बी जे पी की शरण में जाते है,पर हाथ कहीं नहीं मार पाते है ,तो दुसरे ने शुरू से ही कांग्रेस का दामन थाम कर छूटभैया नेता का रोल निभाते हुए जिंदगी गुजार दी.तीसरे ने तो राजनीति से ही आन्ना अन्ना लिया.लेकिन कभी इनके भी जलवे थे.हमारे जैसे ६-७ कक्षा के बच्चे भी आंदोलित हो रहे थे , और इन्कलाब-जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे.१९७५-७६ में तो में भी अपने को बड़ा क्रांतिकारी समझाने लगा था,हालाँकि पड़ता था कक्षा ७-८ में ही.आपात काल के विरोध में मैंने अपनी पहली कविता भी लिखी थी जिसे मेरे बीच वाले भाई साहब ने मजाक उड़ते हुए फाड़ दिया था.फ़िर १९७७ के चुनाव का मंजर था जिसमे लगभग सबने,कुछ लोगो को छोड़कर सबने जनता पार्टी का साथ दिया था.यहाँ तक की हमारे परिवार के कुलगुरु भी आए और कहने लगे की इस बार जनता-पार्टी को ही वोट देना चाहिए.नारे लगे अन्न खावो कौरव का ,गुन गाओ पांडव का .मेरा १४ वर्षीय किशोर मन तो पूरा ही क्रांतिकारी हो चुका था.हाँ यह मत भूलना की मई आज के झारखण्ड के संताल परगना के एक गाम की कहानी कह रहा हूँ.मैं उस हाई स्कूल की बात कर रहा हूँ जिसकी कच्ची फर्स को गोबर से लीपने के लिए हमलोगों को १ किलोमीटर से पानी लाना पड़ता था.पास के(२-३ किलोमीटर) जंगल से गोबर इकठ्ठा करना होता था.तो समझ रहे हो आप,बात उस समय और उस जगह की है ,जहाँ के बारे में आज भी आप में से बहुत लोग कहेंगे की वहां तो बस भूह्के-नंगे रहते हैं,वहां पहले रोटी दो फ़िर राजनीति की बात करना.तो उस समय भी आम लोग ही नही धर्मगुरु तक ने राजनीति में हस्तक्षेप किया था.(आज के धर्म गुरु न मान बैठना उन्हें.)और उस समय भी राजनीति के मायने वह नही थे जो आज हो गया है.आशुतोष की शुरूआती पंक्ति ही शायद परिस्थिति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जब वह लिखते है,गाली-गलौच के बीच आम धारणा यही बनती है की राज नीति अपने लायक नही है......और आम धारणा ही तो सामाजिक सचाई है.तो फिर हम क्या करें?हम तो खास लोग है न.तो क्या हुआ अगर हम करोड़ों देकर टिकट नही खरीद सकते,दादागिरी करके किसी पार्टी से टिकट नही ले सकते,पढ़ने में फिस्सड्डी होकर नेता नही बन सकते, आख़िर हैं तो हम भी कलम के जादूगर, हमारी लेखनी का जादू चल रहा है और दुनिया बदल रही है.कम से कम हिन्दुस्तान तो बदल ही रहा है.पटना,भोपाल,रायपुर --सब बदल रहा है.हिन्दुस्तान पत्र की संपादिका के भावुकता पूर्ण ललित निबंध हो या आपके हमारे जैसे स्वयम्भू चिंतकों के लेख हो ,हम सब कुछ बदल रहे हैं.अरे भाई किसे बेवकूफ बना रहे हो.टी वी मई आ गए हो,मनमर्जी करने की छूट मिल गई है,अखबार हाथ में आ गया है ,लिखने की छपने की छूट मिल गयी है तो विचारक बनने में क्या हर्ज है?कभी लिखना अपने मालिक के ख़िलाफ़...( जारी ).............

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