सोमवार, 27 अप्रैल 2009

हाँ ये वो मंजर तो नहीं...२....( धारावाहिक ).

हां तो में कह रहा था कि बहुत पहले ही गोसाई जी कह गए है --पर उपदेश कुशल बहु तेरे --सो भाई जब तक अपनी नौकरी , चाहे टी वी की नौकरी हो , चाहे अखबार की नौकरी या फ़िर चाहे विश्वविद्यालय की ही नौकरी क्यों न हो , सब के सब अपनी चमड़ी बचाकर बोलेंगे और लिखेंगे भी.व्यवस्था के खिलाफ खूब लिखेंगे और खूब बोलेंगे.बेचारी व्यवस्था तो किसी का कुछ कर नही सकती अब , क्योंकि उसने तो तुम्हें एंकर , पत्रकार , लेखक , प्रोफ़ेसर और न जाने क्या-क्या पहले ही बना रखा है। सो तुम कलन तोड़ते जाओ ,पन्ने भरते जाओ ,स्टूडेंट्स को भासन पिलाते जाओ , समाचार चेनलो पर मशीन की तरह बजाते जाओ ,व्यवस्था तुम्हारा कुछ आमदानी ही करेगी,कुछ जेब गरम ही होगी.और लगे हाथ तुम महान भी बन जाओगे-महान पत्रकार ,महान लेखक ,महान आचार्य आदि-इत्यादि। सो भाई हम सब क्या कर रहे है ,बखूबी जानते हैं। हम यह भी जानते है कि नेता लोग जो नही कहते है और करते रहते है उससे भी नेता लोगो की धाक बढाती ही है। पैसे से सबकुछ ख़रीदा जाता है हमारे लोकतंत्र , महान लोकतंत्र में। बुद्धिजीवी तो सब दिन से नेताओं की दरबारी करते रहे , बिकते रहे और लिखते रहे। राजा-महाराजाओं के पास भी तो दरबारी लेखक ,कवि ,इतिहासकार , विदूषक आदि होते ही थे--प्रशस्ति हेतु। दरबार के रत्न बनकर उतने ही गौरवान्वित होते थे जितने आज के राज ,और राज्य पुरस्कार प्राप्त करके हमारे लेखक.सो सही तो यही है कि रघुकुल रीति सदा चली आयी .....रामचंद्र जी ने रावण को मारा तो जय,शम्बूक को मारा तो भी जय और सीता को बनवास दिया तो भी जय ....... और जनता बेचारी ,उसे तो राज की खुशी में दीप तो जलाने ही हैं। नेताजी चाहे जो कहें ,उनकी जी हजूरी तो करनी ही है.हाँ उनके छुभइए दादा लोग जरूर पथ-प्रदर्शक बनते हैं इस वक्त ,यही तो उनकी भी मस्ती काटने की वेला होती है.पब्लिक पर रॉब भी की नेताजी के ख़ास हैं और नेताजी के दरबार में नंबर की काम का आदमी है। सो उनके दोनों हाथो बोतल ,प्लेट में कबाब और जेब में नोट। ऐ सी की गाड़ी में ,घुमाने का मजा सो फाव में। है न यह मंजर अलग किस्म का... (...जारी...)

हाँ ये वो मंजर तो नहीं.....( धारावाहिक )

हाँ यह मंजर पहले कभी नही देखा....
" मुझे याद नही आता कि पिछले किसी चुनाव में लोगो की इतनी दिलचस्पी रही हो " ये शब्द हैं खुशवंत सिंह जी के , आज के हिंदुस्तान समाचार पत्र में ,आज के हिन्दुस्तान की चुनावी गहमागहमी पर। सहसा ऐसा लगा जैसे किसी ने पुरानी तस्वीर रखी हो सबके इसी ,नई परिस्थिति को समझने के लिए । इसी के बरख्श इ बी एन ७ के प्रबंध सम्पादक आशुतोष के आज के लेख की पंक्तियों को रखता हूँ "ये कहा जब सकता है कि देश कि राजनीति की दिशा बदल रही है , वोटर समझदार हो रहा है ,एक नई सिविल सोसाइटी खड़ी हो रही जो नेताओं की जबाबदारी को तय करने के लिए तैयार है..." यानी अब चुनावी मंजर बदलने लगा है ।जी हाँ इसमे कुछ तो सचाई है ही ।मुझे १९७४ के पहले के दौर की बातो की स्मृति नही है ,१९७१ के भारत-पाक युद्ध के समय गाँव के चौराहे पर सर्द शाम में धंधा तापते (अलाव सेंकते )हुए कुछ बुजुर्ग चेहरों की हलकी -धुंधली छाया दिखाती है ,जो भारतीय सैनिकों पर गर्व कर रहे थे .फिर १९७४ के दौर के जे पी आन्दोलन की याद आती है की किस तरह उस समय के सभी नौजवान ,इंकलाबी हो गए थे.मेरे बड़े भाई ने तथा मेरे छोटे बहनोई ने भी दुमका में प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था और पुलिस द्वारा खदेडे जाने के बाद पिताजी का नाम लेकर aपनी जान बचाई थी .मेरे चचेर भाई और उनके तीन साथियो की मेट्रिक की परीक्षा बहुत ख़राब चली गयी और वे आंदोलनकारी बन गए ,जेल चले गए.इनमे से एक कभी कांग्रेस,कभी बी जे पी की शरण में जाते है,पर हाथ कहीं नहीं मार पाते है ,तो दुसरे ने शुरू से ही कांग्रेस का दामन थाम कर छूटभैया नेता का रोल निभाते हुए जिंदगी गुजार दी.तीसरे ने तो राजनीति से ही आन्ना अन्ना लिया.लेकिन कभी इनके भी जलवे थे.हमारे जैसे ६-७ कक्षा के बच्चे भी आंदोलित हो रहे थे , और इन्कलाब-जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे.१९७५-७६ में तो में भी अपने को बड़ा क्रांतिकारी समझाने लगा था,हालाँकि पड़ता था कक्षा ७-८ में ही.आपात काल के विरोध में मैंने अपनी पहली कविता भी लिखी थी जिसे मेरे बीच वाले भाई साहब ने मजाक उड़ते हुए फाड़ दिया था.फ़िर १९७७ के चुनाव का मंजर था जिसमे लगभग सबने,कुछ लोगो को छोड़कर सबने जनता पार्टी का साथ दिया था.यहाँ तक की हमारे परिवार के कुलगुरु भी आए और कहने लगे की इस बार जनता-पार्टी को ही वोट देना चाहिए.नारे लगे अन्न खावो कौरव का ,गुन गाओ पांडव का .मेरा १४ वर्षीय किशोर मन तो पूरा ही क्रांतिकारी हो चुका था.हाँ यह मत भूलना की मई आज के झारखण्ड के संताल परगना के एक गाम की कहानी कह रहा हूँ.मैं उस हाई स्कूल की बात कर रहा हूँ जिसकी कच्ची फर्स को गोबर से लीपने के लिए हमलोगों को १ किलोमीटर से पानी लाना पड़ता था.पास के(२-३ किलोमीटर) जंगल से गोबर इकठ्ठा करना होता था.तो समझ रहे हो आप,बात उस समय और उस जगह की है ,जहाँ के बारे में आज भी आप में से बहुत लोग कहेंगे की वहां तो बस भूह्के-नंगे रहते हैं,वहां पहले रोटी दो फ़िर राजनीति की बात करना.तो उस समय भी आम लोग ही नही धर्मगुरु तक ने राजनीति में हस्तक्षेप किया था.(आज के धर्म गुरु न मान बैठना उन्हें.)और उस समय भी राजनीति के मायने वह नही थे जो आज हो गया है.आशुतोष की शुरूआती पंक्ति ही शायद परिस्थिति की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जब वह लिखते है,गाली-गलौच के बीच आम धारणा यही बनती है की राज नीति अपने लायक नही है......और आम धारणा ही तो सामाजिक सचाई है.तो फिर हम क्या करें?हम तो खास लोग है न.तो क्या हुआ अगर हम करोड़ों देकर टिकट नही खरीद सकते,दादागिरी करके किसी पार्टी से टिकट नही ले सकते,पढ़ने में फिस्सड्डी होकर नेता नही बन सकते, आख़िर हैं तो हम भी कलम के जादूगर, हमारी लेखनी का जादू चल रहा है और दुनिया बदल रही है.कम से कम हिन्दुस्तान तो बदल ही रहा है.पटना,भोपाल,रायपुर --सब बदल रहा है.हिन्दुस्तान पत्र की संपादिका के भावुकता पूर्ण ललित निबंध हो या आपके हमारे जैसे स्वयम्भू चिंतकों के लेख हो ,हम सब कुछ बदल रहे हैं.अरे भाई किसे बेवकूफ बना रहे हो.टी वी मई आ गए हो,मनमर्जी करने की छूट मिल गई है,अखबार हाथ में आ गया है ,लिखने की छपने की छूट मिल गयी है तो विचारक बनने में क्या हर्ज है?कभी लिखना अपने मालिक के ख़िलाफ़...( जारी ).............

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

सोचना तो होगा ही.करना भी होगा.

बहुत दिनों के बाद likh रहा हूँ , क्योंकि अभी कंप्यूटर की भाषा में दक्षता न रहने के कारण तीन-चार दिनों से कुछ लिख ही नही पा रहा था.खैर...........
इन दिनों धटनाएं तेजी से घाट रही हैं.आज कई राज्यों मैं चुनाव हुए.रात के समाचार से पता चलेगा की कहाँ क्या हुआ?हाँ आज के अखबार में दक्षिण अफ्रीका के चुनाव की बात कही गई है और बताया गया है की भारत के विपरीत वहां मतदान की प्रक्रिया एकदम शांत होती है तथा एक रूटीन की तरह इसे भी समझा जाता है.वहां के पूर्व राष्ट्रपति डॉ नेल्सन द्वारा वोट डालने की फोटो भी छपी है.तो फिर हमारे देश का यह मंजर क्यों?इसका विश्लेषण हम सबको अपने-अपने ढंग से करना ही चाहिए.आज की घटनाओं पर तो प्रतिक्रिया बाद में ही पोस्ट कर पाऊंगा ,परन्तु ,हॉटसिटी डॉट कॉम पर एक पाठक(झा जी) की प्रतिक्रिया से जोड़कर आज पुनः उसी सवाल को रखना चाहूँगा.रवि वार की रात शिप्रा-रिविएरा में एक घटना घटी.किसी का नाम नही लूँगा .एक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा लगे गए झंडे को उतरकर दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा अपनी पार्टी का झंडा लगा दिया गया.दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता इस आर डब्लू ऐ के अध्यक्ष भी हैं.इस बात को लेकर बवाल हो गया.आपस में भिड़ने से माहोल तनावपूर्ण हो गया.पुलिस के आला अधिकारियों ने तुंरत घटनास्थल पर पहुंचकर स्थिथि को नियंत्रित किया.फेडरेशन ऑफ़ आर डब्लू एज के प्रेजिडेंट की हैसियत से वहां पहुंचकर मैंने भी स्थिति को नियंत्रित करने में यथा सम्भव योगदान दिया.मंगलवार के अखबारों ने इसे बड़ी ख़बर बनाया.प्रशासन ने भी इसे गंभीरता से लिया है.पर प्रश्न उठता है की आख़िर आपस में उलझाने वाले लोग कौन थे? इसी सोसाइटी के थे.लेकिन यहाँ वे सोसाइटी के हित में नही बल्कि आपने निजी हितों के लिए लड़ रहे थे.शायद अपनी-अपनी पार्टी के आकाओं को खुश करने के लिए,ताकि कल उनकी दूकानारी चमकती रहे.मुझे पूरा यकीन है की किसी भी प्रत्याशी ने उन्हें इस तरह से लड़ने हेतु नही कहा होगा.बल्कि जब झगडे की स्थिति हो गयी थी तो अध्यक्ष की पार्टी के कई छोटे-बड़े नेताओं ने भी उनके कार्य की निंदा की ,चाहे मामले को टूल न देने के लिए ही सही.तो फिर आख़िर क्यों नहीं ये छोटे स्टार के लोग इतनी बड़ी समस्या पैदा करने से बाज आते हैं?इससे भी बड़ा प्रश्न यह है की क्यों इसे लोगों का व्यवहार जानते हुए भी लोग इन्हे आर डब्लू ऐ की चाबी सौप देते हैं?इसलिए सोचना हम सबको है की कैसे स्थिति बदलेगी?
अब आइये झाजी और अन्य पाठकों की टिप्पणियों की भावना पर.लगता है हम सब आज जिस संकट के दौर से गुजर रहे हैं--उसे विस्वास का संकट कहा जब सकता है.इतनी बार आम लोग ठगे जा चुके हैं की किसी पर विश्वास ही किया जाता है.बहुत आसानी से सबको एक साथ ब्रांड कर दिया जाता हा "आप लोग" कहकर.आर डब्लू ऐ इतनी चोटी ईकाई होती है की यहाँ आप किसी के भी बारे में सबकुछ पता कर सकते हैं,पर किसी को इसकी फुर्सत नहीं है,क्योंकि "आप सब" कहकर अपने कर्तव्य की पूर्ति का आत्म-संतोष लोगों को मिल जाता है.अतः यह जो शोर्ट कर्ट का फार्मूला है,इंस्टेंट करने और कहने की जीवन शैली है उसमे मंथन की क्षमता है ही नही.विशास के संकट के इस दौर में , इसीलिए हमारे जैसे लोगो की प्रासंगिकता है,क्योंकि हम अलग हटकर कुछ कहने की कोशिश कर रहे हैं.अलग हटकर कुछ करने की भी कोशिश कर रहे हैं,पिछले २८ वर्षों की मेरी आंदोलनात्मक गतिविधियों से जो परिचित हैं ,इस तथ्य को स्वीकारते हैं.नही मैं उत्तेजित नही हो रहा हूँ,चिंतित हो रहा हूँ की इस इंस्टेंट kalchar में भी मुझे परिवर्तन की राह तो बनानी ही है ,भले ही उसके लिए वैकल्पिक राजनीति के प्रयोग कितनी बार भी क्यों न करना पड़े?सच तो यह है की इंदिरा[uram में एक bar मौका मिला तो मैंने कुछ समर्पित और prabuddha लोगों के साथ मिलकर जिस फेडरेशन को खड़ा किया है वह एक और jahan यहाँ के niwasiyon के लिए taakatvar जन manch बन कर खड़ा है वहीं इस से nihit rajnitik tatva ghabrane लगे हैं.अतः यह जंग jari है--बस aapsabko pahchaanna है की dharma kahn है kyoki jaha dharma है वहीं jay है.

रविवार, 19 अप्रैल 2009

कब तक चुपचाप बैठे रहोगे?

आख़िर कब तक तुम सहोगे?चुनाव--२००९ के प्रथम चरण में १९ लोग मारे गए,जैसा की अखबार बताते हैं.जब पूरी चुनावी प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तब क्या होगा?इतना बड़ा देश---ये तो छोटी -मोटी बातें होती रहती हैं, यही कहेंगे न आप लोग!जब चुनाव नहीं होता है , तब भी तो रोज-रोज लोग मरते हैं.फिर अभी लोग मरते हैं तो क्यों स्यापा कर रहा हूँ मैं.ठीक कहा आपने.पर क्या करुँ.मैं चुप तो रहना जानता नहीं हूँ.भो सकता हूँ,चीख सकता हूँ ,दहाड़ भी सकता हूँ,और स्यापा भी कर सकता हूँ की लोग कम से कम सुने तो.जानता हूँ ,आप भी विवश हैं--आख़िर सब तो एक जैसे ही हैं.शकल अलग -अलग है,झंडा अलग-अलग है , लेकिन लोग तो वही हैं न.हर पार्टी के मठाधीश टिकट बनते समय देखते हैं की कौन बाहुबली है , कौन धनबली है तथा कौन कितना बड़ा धंधेबाज है.तो हम आम लोग कर ही क्या सकते हैं?लेकिन अगर यही बात गाँधी जी ने भी सोची होती तो?भगत सिंह क्यों फाँसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूल गए?सुभाष ने क्यों दी कुर्बानी?
इतिहास को जानने वाले जानते हैं की हर दौर में ऐसा होता है की समाज की आसुरी शक्ति एक-दूसरे से लड़ती भी है,पर रक दूसरे को बचाती भी है.सारी व्यवस्था पर अपना ही कब्जा जमाए रखना चाहती है, पराणु अंततः मानवी शक्ति के आगे आसुरी शक्ति को हारना ही पड़ता है। बस जरूरत है मानवी शक्ति के उठ खड़ा होने की.इसलिए जो में लिख रहा हूँ उसे मात्र स्यापा या विलाप न समझो,यह तो ह्रदय की आवाज ही,जो तुम्हारे कानों में देर तक गूंजती रहेगी.तुम चाहो न चाहो तुम्हे इस आवाज को सुनना ही पड़ेगा.फिर आना मेरे पास और पूछना की बताओ क्या करना है, कहाँ जाना है? और तब मैं कहूँगा महात्मा बुद्ध की बात को समझो की उन्होंने क्यों कहा था की अपना दीपक स्वयं बनो.

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

विष्णु प्रभाकर जी सादगी की प्रतिमूर्ति थे..

१९९० का वर्ष मेरे लिए ,अब ऐसा लगता है ,काफ़ी महत्वूर्ण था.उस समय मुझमे सकारातमक उर्जा का प्रबल आवेग हिलोरें ले रहा था.मैंने जो कुछ भी समाज को दिया,या सामजिक ऋण से उरिण होने के लिए जिन कार्यों को सम्पन्न किया,उनमे बहुतो की शुरुआत ९० से ही हुई है.ठीक से याद नही आ रहा है की मैं कैसे और किनके साथ सबसे पहले मोहन पैलेस की छत पर चलने वाले काफी हाउस में पहुँचा.शायद प्रो. राजकुमार जैन जी के साथ गया था.वह शनिवार का दिन था.वहीं पर दिल्ली के चर्चित लेखकों और कलाकारों की मंडली लगी हुई थी.उस मंडली के मध्य वयोवृद्ध खादी धरी,गाँधी टोपी पहने विष्णु प्रभाकर जी सुशोभित हो रहे थे.उस समां ने मुझ पर गजब का असर ढाया.फ़िर तो मैं हर शनिवार को उस शनिवारी गोष्ठी मैं बैठने लगा.यह सिलसिला १९९५ तक चला,जबतक विश्वविद्यालय परिसर का रीड्स लाइन हमारा निवास रहा.इन पांच वर्षों में न जाने कितने नामी -गिरामी लेखकों ,कवियों,कलाकारों और पत्रकारों का साहचर्य रहा.पता नहीं कितनी साहित्यिक गोष्ठियों में समीक्षक या वक्ता की हैसियत से शामिल हुआ.उन दिनों मैं दाढी रखता था तथा पाईप पीता था.उन दिनों के उप-कुलपति प्रो.उपेन्द्र बक्षी साहब भी पाईप पीते थे. अतः लोग मुझपर कभी-कभी व्यंग्य भी करते थे की एक बक्षी साहब हैं की एक झा साहब हैं--दूर से पहचाने जाते हैं.मैं भी खादी का कुर्ता पायजामा ही पहनता था,सो मेरी किसी भी बैठक में उपस्थिति अलग अंदाज में ही होती थी.पढाता इतिहास हूँ ,परन्तु उन दिनों भी लोग मुझे हिन्दी का ही शिक्षक समझते थे.काफी हाउस भी इसका अपवाद नही था.मेरे कॉलेज के डॉक्टर हेमचंद जैन अक्सर मुझे कहते थे --आप अपने बौद्धिक लुक से आतंकित करते हैं.देव राज शर्मा पथिक भी कहते थे की झा साहब आपमें स्पार्क है .खैर मैं इन बातो का आदि होता जा रहा था.लेकिन काफी हाउस मैं बस साहित्यिक मंडली का साहचर्य सुख लेने जाता था.वहां मेरे जैसा एक अदना सा व्यक्ति बहुत बोलता था परन्तु वाह रे विष्णु जी की महानता ,मुझे मेरे छोटेपन का कभी अहसास तक नही होने दिया.वल्कि मुझे लगता है मुझे काफ़ी गंभीरता से वे सुनते थे.बहुत गर्वोन्नत महसूस करता था मैं.एक-दो बार हाथ पकड़कर भीड़ भरी सड़क पार कराने के बहने उनका स्नेहिल स्पर्श और सान्निद्ध्य प्राप्त करने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ,इसका संतोष है .१९९४ में भारतीय भाषाओँ के लिए संघर्ष करने के क्रम में संघ लोक सेवा के बाहर के धरना-स्थल से पुष्पेन्द्र चौहान समेत कई साथियों के साथ मुझे भी पुलिस ने गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज दिया.ज्ञानी जेल सिंह,अटल बिहारी वाजपेयी विशानाथ प्रताप सिंह,मुलायम सिंह यादवऔर अन्य कई बड़े नेताओं तथा साहित्यकारों-पत्रकारों,समाज सेवियों एवं आन्दोलनकारियों के दबाब में एक सप्ताह के बाद हमारे उपर लादे गए सारे केस हटाकर हमें बिना शर्त रिहा किया गया.इसके बाद तो काफी हाउस में मी हमारे प्रति साथियों का आदर भाव बढ़ गया.लेकिन अपने आवारा स्वाभाव के कारण मैं १९९५ के बाद काफी हाउस जाने का सिलसिला चालू नही रख सका.इसका मुझे आज भी अफ़सोस है.आवारा मसीहा के लेखक को इसका भान भी नहीं हुआ होगा की एक यायावरी आवारा किसी दुसरे धुन में उलझ रहा होगा.आज हमारे बीच नही रहने के बाद भी उनकी स्मृतियाँ इतनी मृदुल है की लगता है विष्णु जी अभी भी काफी हाउस की मंडली की शोभा बने हुए हैं.उनकी स्मृति को कोटि-कोटि प्रणाम.

रविवार, 12 अप्रैल 2009

झकास

हाँ मुझे अपने ब्लॉग का अब सही नाम मिल गया है.अलग-अलग ब्लॉग को पढ़कर मैं सोच रहा था की मैं भी अपने ब्लॉग का कुछ ऐसा नाम रखूँ की बस---सब बोलने लगे की वाह क्या नाम है?अभी सोच ही रहा था की मेरी १२ साल की बेटी आकर खड़ी हो गयी मेरे पास और कुछ-कुछ बोलने लगी.मेने कहा जाओ ,मुझे सोचने दो ब्लॉग का नया नाम,तभी वह बोल उठी--झकास.बस मुझे नाम मिल गया--झकास.सचमुच हमेसा तरो-तजा रहने वाला मैं,मेरी योजना,मेरी कल्पना और मेरा स्वप्निल संसार --झकास ही तो है.चकाचक और तरोताजा.सो अब झकास को देखिये,झकास को पढिये,झकास पर कमेन्ट करिए.आप और हम मिलकर झकास ही करेंगे.अरे हाँ.किसी भाई या बहन ने झकास नाम से पेटेंट तो नही करा लिया है--अगर ऐसा है तो बता देना यार.तब फिर बदल लूँगा ब्लॉग का नाम.तब तक झकास ही चलेगा.नहीं यार दौडेगा.आप सब भी दौडो न मेरे साथ.

माहौल गरम है.

देश में चुनावी आंधी चल रही हो,नेता से लेकर जनता तक -सब पर बैसाख में भी होली की
खुमार हो,सभी कलम तोड़ लेखक अखबारों के पन्ने काले कर रहे हों,टी वी पर बुद्धिजीवी बनकर देश और समाज के स्वयम्भू ठेकेदार अपनी डफली -अपना राग का भोंपू बजा रहे हों, तो यह मुमकिन ही नही की आर डबल्यू ए को राजनीती के सफर की पहली सीढी बनने वाले छुटभइए और छुट्बहने तिरछी चल न चले.सभी जानते हैं की इंदिरापुरम में-- गाजियाबाद ही नही पूरे एन सी आर में एक नयी हलचल ,बहुत कम ही समय में, पैदा करके ,इंदिरापुरम जो कभी समस्यापुरम था को अब सुन्दरपुरम बनने में फेडरेशन ऑफ़ इंदिरापुरम आर डबल्यू ए को बड़ी सफलता मिली है.इस नए संगठन को खड़ा करने में इसके सभी शुरूआती सदस्यों का योगदान काफ़ी बड़ा रहा है.सच तो यह है की इस नयी ताकत को कुचलने का प्रयास यहाँ की सभी निहित स्वार्थी ताकतों ने किया था.लेकिन तब हमें कोई तोड़ नही पाया क्योंकि हम सब एक थे.मैं लगातार सबके संपर्क में रहता था और सभी मेरे मुरीद बन गए थे.लेकिन मेरे विरोधियों को हमारी टीम की यह एकता फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी,इसीलिए उन्होंने अलग चाल चली--हमारे साथियों को अकेले-अकेले तोड़ने की मुहीम चला दी.एक दूसरे को नीचा दिखाने का षडयंत्र अभी भी चलाया जब रहा है.परन्तु मैं इस नापाक साजिश को सफल नही होने दूंगा.मैं अपने फेडरेशन के किसी साथी को नहीं टूटने दूंगा.आर डबल्यू ए को राजनीति का अखाडा बनाने वाले को kararaa जबाब दूंगा.मैं, जो स्वयं लम्बी अवधी से राजनीति से jura हुआ हूँ,आर डबल्यू ए को राजनीति से बचाए रखना चाहता हूँ,तो मेरे तमाम साथी जो राजनीती न तो जानते हैं और ना ही समझते हैं, क्यों नही इस खतरे को समझेंगे?मेरे धैर्य की थोडी और परीक्षा होनी बाकी है,मुझे ही फेडरेशन और सभी साथियों की सामूहिक ताकत को बचाए रखने की जिम्मेदारी निभाना होगी.आप सभी प्रबुद्ध पाठकों से निवेदन है की मुझे इस पुनीत कार्य में अपनी शुभकामना एवं अपना सुझाव दें.

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

झारखण्ड की राजनीती का खेल

यूँ तो पूरे देश की राजनीती एक खेल की तरह होती जा रही है,परन्तु झारखण्ड का खेल तमासा banta जा रहा है. इस बार के खेल में सभी नेताओ और छुट्भईयों का बेशर्म चेहरा साफ-साफ दिखने लगा है.सिद्धांत और आदर्श का कोई नाम भी नहीं ले रहा है.दिखाने के लिए ही सही राजनीति धर्म का कुछ तो पालन होना चाहिए था.झारखण्ड के संताल परगना की राजनीती तो एकदम गरम हो गयी है.संताल परगना,जो मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि-कर्मभूमि के साथ मेरे राजनीतिक कर्म का भी क्षेत्र है,को इस हालत में देखकर दिल दुखता है.संताल परगना के duhakh-दर्द को कोई भी तो नहीं समझ रहा है.बिहार से मुक्तहोकर बनने वाले झारखण्ड में भी यह इलाका उपेक्षित ही रह गया.कहने को तो झारखण्ड के सबसे बड़े नेतागण इसे ही अपनी राजनीति का प्रयोग स्थल बनाते हैं,पर महज इसकी भावनाओं का दोहन करने के लिए ही.इस बार के इस चुनावी तमासे में इसीलिए तमासाबीनों को ही इसका फल भुगतना होगा.किसी न किसी को तो जीतना है ही,पर आख़िर-आख़िर तक कोई भी आश्वस्त नहीं हो सकेगा इस बार.और यह चुनाव संताल परगना के साथ खिलवाड़ का शायद आखिरी चुनाव होगा,क्योंकि अब यहाँ की जनता सोचने लगी है की झारखण्ड के जूए से भी संताल परगना को मुक्त होना ही पड़ेगा.कभी जंगल-तराई के नाम से मशहूर इस क्षेत्र को आस-पास के सांस्कृतिक क्षेत्रों के साथ मिलाकर जंगल-तराई नाम के राज्य के रूप में गठित कराना ही होगा,तभी इसके साथ न्याय हो सकता है.मैं ,जो यहाँ का मूल निवासी हूँ,इस पीड़ा को शिद्दत से महसूस करता हूँ.इसीलिए सोचता हूँ,नहीं कामना करता हूँ की अब जो भी चुनाव होगा उसमे जंगल-तराई राज्य का निर्माण सबसे बड़ा मुद्दा होगा.मैं जाब इस मुद्दे को लेकर संताल-परगना की शोषित-उपेक्षित जनता की आवाज बनकर काम करूंगा,और भविष्य में ऐसे तमासे नहीं होने dunga.

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

मैं सोचता और करता रहूँगा

लगता है आप सबने सोचना छोड़ दिया है.चिंता की कोई बात नहीं.मैं हूँ न.मैं सोचूंगा भी और करूंगा भी.फिर आप सब को प्रसाद ग्रहण करने बुला लूँगा.तब तक आराम काटिए आप,क्योंकि कान फोडू भोंपू की आवाज सुनते-सुनते आप भी उकता गए होंगे.

तो क्या सोचा आपने ?

वाह भाई वाह. ये क्या सुन रहा हूँ ? देश के कोने-कोने से क्या समाचार आ रहे हैं?अभी भी वक्त है ,सुन लीजिये हमारी बात.मान लीजिये हमारी मंत्रणा.तो क्या सोचा आपने?

चुनाव और हम.

न जाने इस चुनावी मौसम में कौन क्या-क्या लिख रहा है.नामी- गिरामी लेखकों से लेकर स्वयम्भू चिन्तक--मेरी तरह,सभी कुछ न कुछ लिख रहा है ,इसकी परवाह किए बिना की कोई पढ़ भी रहा की नही?ना, ना आतंकित मत होइए ,नामी-गिरामी लेखक भी बस नाम की ही कमाई खा रहे हैं.वे भी क्या लिखते हैं उनसे उनका कोई सरोकार है या नहीं ये तो वही जाने पर पढ़ने वल्लों का शायद ही कोई सरोकार हो ऐसे लेखकों से ऐसा मैं जरूर कह सकता हूँ.सो भाई यहाँ पाठकों की नहीं लेखकों की रेलमपेल है.अगर आप लेखक हैं तो माफ़ करना मैं अपना और समय बर्बाद क्यों करूं?आपको तो पढ़ना है नहीं.अगर आप पाठक हैं तो आपका भाव बढ़ा होगा.आप मेरा लिखा क्यों पढेंगे,आपको तो मैं टिकेट देकर चुनाव जितवा सकता नही?तो मैंने सोचा क्यों न सारे रोल खुद ही कर लूँ?टिकट लेकर चुनाव लड़ लूँ,लेखक बनकर पन्ने भर लूँ,और पाठक बनकर अपना लिखा ख़ुद ही पढ़ लूँ.सो वही कर रहा हूँ यार .तुम सब भी तो वही कर रहे हो--कोई किसी के लिखे पर कमेन्ट नहीं कर रहा है,बस अपना -अपना देख रहा है.चुनाव में भी तो यही होता है.नेतागण अपना-अपना देखते हैं,चमचे-बेलचे अपना-अपना देखते हैं.जय हो इस लोकतंत्र की जय हो.इतनी साधना के बाद इसे तो मैं ही समझ पाया हूँ.इसीलिए तो यह चुनावी मौसम है और मैं हूँ.नही समझोगे तुम--कुछ भी नही समझोगे.आख़िर साधना का सवाल है.हाँ चाहो तो मुझे फालो करके देखो--शायद कुछ-कुछ समझ जाओ.

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

कविता कोष सचमुच औरों से हटकर है.

कविता-कोष को कल जो पत्र भेजा था उसका त्वरित उत्तर प्राप्त हुआ.संपादक अनिल जनविजय जी ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया,अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ.कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए मेरे द्वारा भेजे गए दूसरे पत्र का भी उन्होंने तुरत उत्तर दिया तथा पंकज जी से सम्बंधित सारी सामग्री मांगी.पद्य,गद्य,संस्मरण,समीक्षा,तथा पंकज जी पर लिखे गए लेखों को भी उन्होंने माँगा है.अब मैं जल्दी से जल्दी अनिल जन विजय जी को सम्बंधित सारी सामग्री यूनिकोड पर भेज दूंगा.आप सब से भी अपील करता हूँ की अगर किसी पाठक के पास पंकज जी की कोई रचना उपलब्ध हो या पंकज जी के ऊपर किसी अन्य लेखक के द्वारा लिखित कोई सामग्री उपलब्ध हो तो मुझे या कविता कोष को प्रेषित कर दें.मेरे इस ब्लॉग में कमेन्ट करते हुए भी इस तथ्य का जिक्र सुधि पाठक या लेखक गण कर सकते हैं.आइए,हम सब मिलकर पंकज जी के ऋण से उ ऋण होने हेतु इस महायज्ञ में अपना-अपना योगदान दें.संताल परगना के इस mahan vibhooti के प्रति हमारी यही sachhi shraddhanjali होगी.

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

http://www.kavitakosh.org

कविताकोश में आचार्य "पंकज"और उनकी रचनाओं को सम्मिलित कराने हेतु हमने आज ही कविताकोश के नाम एक इमेल भेजा है.देखना है कि इस मूर्धन्य विद्वान् और महान कवि ही नही, प्रखर स्वाधीनता सेनानी और हजारों लोगों के श्रद्धेय शिक्षक स्वर्गीय प्रोफ़ेसर ज्योतिन्द्र प्रसाद झा "पंकज"के साथ आज का इ-हिन्दी जगत न्याय करता है या नहीं.आप कि क्या राय है?कृपया प्रतिक्रिया में लिखें.

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

अप्रैल फूल.

पूरे देश की जनता के साथ अप्रैल फूल ही तो मनाया जा रहा है.इसे लोकतंत्र का महापर्व कह लो या चुनावी महासमर या फिर लूट का एक और मेला.जनता -जिसकी सब दुहाई देते हैं,जनता के जिस वोट के बल पर सरकार बनती है,जनता -जिसे लुभाने में सभी पार्टियाँ दिन -रत एक कर रही है,वह जनता वास्तव में है कहाँ?जाता तो माल की तरह है जीसी सिर्फ़ ख़रीदा और बेचा जाता है.जनता से पैसा लूटा जाता है ,पैसा लगाकर जनता जुटी जाती है,पैसा लगाकर जनता से आन्दोलन खड़ा कराया जाता है,गोली खाने को भी जनता को ही आगे कर दिया जाता है.इस मेले में जनता ही है,बस उसकी कमान वाला वह पीछे बैठकर कठपुतलियों की तरह सबको नाचता रहता है.कठपुतली के इस खेल में शामिल होने के लिए भी जनता ही उमड़ती है.कैसे बदलोगे यब तुम?पर तुम्हे तो बदलना होइस खेल का नियम.इस खेल में शामिल होकर--इस खेल का नियम बदलना होगा तुम्हें--तभी तुम्हारी योजना सफल होगी अमरनाथ झा. इसमे तुम्हे किसका साथ मिलता है और कौन विरोधी है इसकी पहचान तुम्हे करनी ही होगी अमरनाथ झा.पूज्य पिताजी "पंकज जी" की पंक्तियाँ क्या कहती है जरा गौर करो--
अभी जो सामने से बंधू बन आता
उर को खोल कर है प्रीत दिखलाता

वही तो पीठ पीछे बंधू का घाती
वही तो पीठ पीछे
मृत्यु संघाती

किंतु कितनी बेखबर हो गयी यह दुनिया
के इसपर

आज भी परदा दिए जाती?