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अप्रैल, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हाँ ये वो मंजर तो नहीं...२....( धारावाहिक ).

हां तो में कह रहा था कि बहुत पहले ही गोसाई जी कह गए है --पर उपदेश कुशल बहु तेरे --सो भाई जब तक अपनी नौकरी , चाहे टी वी की नौकरी हो , चाहे अखबार की नौकरी या फ़िर चाहे विश्वविद्यालय की ही नौकरी क्यों न हो , सब के सब अपनी चमड़ी बचाकर बोलेंगे और लिखेंगे भी.व्यवस्था के खिलाफ खूब लिखेंगे और खूब बोलेंगे.बेचारी व्यवस्था तो किसी का कुछ कर नही सकती अब , क्योंकि उसने तो तुम्हें एंकर , पत्रकार , लेखक , प्रोफ़ेसर और न जाने क्या-क्या पहले ही बना रखा है। सो तुम कलन तोड़ते जाओ ,पन्ने भरते जाओ ,स्टूडेंट्स को भासन पिलाते जाओ , समाचार चेनलो पर मशीन की तरह बजाते जाओ ,व्यवस्था तुम्हारा कुछ आमदानी ही करेगी,कुछ जेब गरम ही होगी.और लगे हाथ तुम महान भी बन जाओगे-महान पत्रकार ,महान लेखक ,महान आचार्य आदि-इत्यादि। सो भाई हम सब क्या कर रहे है ,बखूबी जानते हैं। हम यह भी जानते है कि नेता लोग जो नही कहते है और करते रहते है उससे भी नेता लोगो की धाक बढाती ही है। पैसे से सबकुछ ख़रीदा जाता है हमारे लोकतंत्र , महान लोकतंत्र में। बुद्धिजीवी तो सब दिन से नेताओं की दरबारी करते रहे , बिकते रहे और लिखते रहे। राजा-महाराजाओं के पास भ...

हाँ ये वो मंजर तो नहीं.....( धारावाहिक )

हाँ यह मंजर पहले कभी नही देखा.... " मुझे याद नही आता कि पिछले किसी चुनाव में लोगो की इतनी दिलचस्पी रही हो " ये शब्द हैं खुशवंत सिंह जी के , आज के हिंदुस्तान समाचार पत्र में ,आज के हिन्दुस्तान की चुनावी गहमागहमी पर। सहसा ऐसा लगा जैसे किसी ने पुरानी तस्वीर रखी हो सबके इसी ,नई परिस्थिति को समझने के लिए । इसी के बरख्श इ बी एन ७ के प्रबंध सम्पादक आशुतोष के आज के लेख की पंक्तियों को रखता हूँ "ये कहा जब सकता है कि देश कि राजनीति की दिशा बदल रही है , वोटर समझदार हो रहा है ,एक नई सिविल सोसाइटी खड़ी हो रही जो नेताओं की जबाबदारी को तय करने के लिए तैयार है..." यानी अब चुनावी मंजर बदलने लगा है ।जी हाँ इसमे कुछ तो सचाई है ही ।मुझे १९७४ के पहले के दौर की बातो की स्मृति नही है ,१९७१ के भारत-पाक युद्ध के समय गाँव के चौराहे पर सर्द शाम में धंधा तापते (अलाव सेंकते )हुए कुछ बुजुर्ग चेहरों की हलकी -धुंधली छाया दिखाती है ,जो भारतीय सैनिकों पर गर्व कर रहे थे .फिर १९७४ के दौर के जे पी आन्दोलन की याद आती है की किस तरह उस समय के सभी नौजवान ,इंकलाबी हो गए थे.मेरे बड़े भाई ने तथा मेरे छोटे बहनो...

सोचना तो होगा ही.करना भी होगा.

बहुत दिनों के बाद likh रहा हूँ , क्योंकि अभी कंप्यूटर की भाषा में दक्षता न रहने के कारण तीन-चार दिनों से कुछ लिख ही नही पा रहा था.खैर........... इन दिनों धटनाएं तेजी से घाट रही हैं.आज कई राज्यों मैं चुनाव हुए.रात के समाचार से पता चलेगा की कहाँ क्या हुआ?हाँ आज के अखबार में दक्षिण अफ्रीका के चुनाव की बात कही गई है और बताया गया है की भारत के विपरीत वहां मतदान की प्रक्रिया एकदम शांत होती है तथा एक रूटीन की तरह इसे भी समझा जाता है.वहां के पूर्व राष्ट्रपति डॉ नेल्सन द्वारा वोट डालने की फोटो भी छपी है.तो फिर हमारे देश का यह मंजर क्यों?इसका विश्लेषण हम सबको अपने-अपने ढंग से करना ही चाहिए.आज की घटनाओं पर तो प्रतिक्रिया बाद में ही पोस्ट कर पाऊंगा ,परन्तु ,हॉटसिटी डॉट कॉम पर एक पाठक(झा जी) की प्रतिक्रिया से जोड़कर आज पुनः उसी सवाल को रखना चाहूँगा.रवि वार की रात शिप्रा-रिविएरा में एक घटना घटी.किसी का नाम नही लूँगा .एक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा लगे गए झंडे को उतरकर दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा अपनी पार्टी का झंडा लगा दिया गया.दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता इस आर डब्लू ऐ के अध्यक्ष भी हैं.इस ...

कब तक चुपचाप बैठे रहोगे?

आख़िर कब तक तुम सहोगे?चुनाव--२००९ के प्रथम चरण में १९ लोग मारे गए,जैसा की अखबार बताते हैं.जब पूरी चुनावी प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तब क्या होगा?इतना बड़ा देश---ये तो छोटी -मोटी बातें होती रहती हैं, यही कहेंगे न आप लोग!जब चुनाव नहीं होता है , तब भी तो रोज-रोज लोग मरते हैं.फिर अभी लोग मरते हैं तो क्यों स्यापा कर रहा हूँ मैं.ठीक कहा आपने.पर क्या करुँ.मैं चुप तो रहना जानता नहीं हूँ.भो सकता हूँ,चीख सकता हूँ ,दहाड़ भी सकता हूँ,और स्यापा भी कर सकता हूँ की लोग कम से कम सुने तो.जानता हूँ ,आप भी विवश हैं--आख़िर सब तो एक जैसे ही हैं.शकल अलग -अलग है,झंडा अलग-अलग है , लेकिन लोग तो वही हैं न.हर पार्टी के मठाधीश टिकट बनते समय देखते हैं की कौन बाहुबली है , कौन धनबली है तथा कौन कितना बड़ा धंधेबाज है.तो हम आम लोग कर ही क्या सकते हैं?लेकिन अगर यही बात गाँधी जी ने भी सोची होती तो?भगत सिंह क्यों फाँसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूल गए?सुभाष ने क्यों दी कुर्बानी? इतिहास को जानने वाले जानते हैं की हर दौर में ऐसा होता है की समाज की आसुरी शक्ति एक-दूसरे से लड़ती भी है,पर रक दूसरे को बचाती भी है.सारी व्यवस्था पर...

विष्णु प्रभाकर जी सादगी की प्रतिमूर्ति थे..

१९९० का वर्ष मेरे लिए ,अब ऐसा लगता है ,काफ़ी महत्वूर्ण था.उस समय मुझमे सकारातमक उर्जा का प्रबल आवेग हिलोरें ले रहा था.मैंने जो कुछ भी समाज को दिया,या सामजिक ऋण से उरिण होने के लिए जिन कार्यों को सम्पन्न किया,उनमे बहुतो की शुरुआत ९० से ही हुई है.ठीक से याद नही आ रहा है की मैं कैसे और किनके साथ सबसे पहले मोहन पैलेस की छत पर चलने वाले काफी हाउस में पहुँचा.शायद प्रो. राजकुमार जैन जी के साथ गया था.वह शनिवार का दिन था.वहीं पर दिल्ली के चर्चित लेखकों और कलाकारों की मंडली लगी हुई थी.उस मंडली के मध्य वयोवृद्ध खादी धरी,गाँधी टोपी पहने विष्णु प्रभाकर जी सुशोभित हो रहे थे.उस समां ने मुझ पर गजब का असर ढाया.फ़िर तो मैं हर शनिवार को उस शनिवारी गोष्ठी मैं बैठने लगा.यह सिलसिला १९९५ तक चला,जबतक विश्वविद्यालय परिसर का रीड्स लाइन हमारा निवास रहा.इन पांच वर्षों में न जाने कितने नामी -गिरामी लेखकों ,कवियों,कलाकारों और पत्रकारों का साहचर्य रहा.पता नहीं कितनी साहित्यिक गोष्ठियों में समीक्षक या वक्ता की हैसियत से शामिल हुआ.उन दिनों मैं दाढी रखता था तथा पाईप पीता था.उन दिनों के उप-कुलपति प्रो.उपेन्द्र बक्षी साहब...

झकास

हाँ मुझे अपने ब्लॉग का अब सही नाम मिल गया है.अलग-अलग ब्लॉग को पढ़कर मैं सोच रहा था की मैं भी अपने ब्लॉग का कुछ ऐसा नाम रखूँ की बस---सब बोलने लगे की वाह क्या नाम है?अभी सोच ही रहा था की मेरी १२ साल की बेटी आकर खड़ी हो गयी मेरे पास और कुछ-कुछ बोलने लगी.मेने कहा जाओ ,मुझे सोचने दो ब्लॉग का नया नाम,तभी वह बोल उठी--झकास.बस मुझे नाम मिल गया--झकास.सचमुच हमेसा तरो-तजा रहने वाला मैं,मेरी योजना,मेरी कल्पना और मेरा स्वप्निल संसार --झकास ही तो है.चकाचक और तरोताजा.सो अब झकास को देखिये,झकास को पढिये,झकास पर कमेन्ट करिए.आप और हम मिलकर झकास ही करेंगे.अरे हाँ.किसी भाई या बहन ने झकास नाम से पेटेंट तो नही करा लिया है--अगर ऐसा है तो बता देना यार.तब फिर बदल लूँगा ब्लॉग का नाम.तब तक झकास ही चलेगा.नहीं यार दौडेगा.आप सब भी दौडो न मेरे साथ.

माहौल गरम है.

देश में चुनावी आंधी चल रही हो,नेता से लेकर जनता तक -सब पर बैसाख में भी होली की खुमार हो,सभी कलम तोड़ लेखक अखबारों के पन्ने काले कर रहे हों,टी वी पर बुद्धिजीवी बनकर देश और समाज के स्वयम्भू ठेकेदार अपनी डफली -अपना राग का भोंपू बजा रहे हों, तो यह मुमकिन ही नही की आर डबल्यू ए को राजनीती के सफर की पहली सीढी बनने वाले छुटभइए और छुट्बहने तिरछी चल न चले.सभी जानते हैं की इंदिरापुरम में-- गाजियाबाद ही नही पूरे एन सी आर में एक नयी हलचल ,बहुत कम ही समय में, पैदा करके ,इंदिरापुरम जो कभी समस्यापुरम था को अब सुन्दरपुरम बनने में फेडरेशन ऑफ़ इंदिरापुरम आर डबल्यू ए को बड़ी सफलता मिली है.इस नए संगठन को खड़ा करने में इसके सभी शुरूआती सदस्यों का योगदान काफ़ी बड़ा रहा है.सच तो यह है की इस नयी ताकत को कुचलने का प्रयास यहाँ की सभी निहित स्वार्थी ताकतों ने किया था.लेकिन तब हमें कोई तोड़ नही पाया क्योंकि हम सब एक थे.मैं लगातार सबके संपर्क में रहता था और सभी मेरे मुरीद बन गए थे.लेकिन मेरे विरोधियों को हमारी टीम की यह एकता फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी,इसीलिए उन्होंने अलग चाल चली--हमारे साथियों को अकेले-अकेले तोड़ने क...

झारखण्ड की राजनीती का खेल

यूँ तो पूरे देश की राजनीती एक खेल की तरह होती जा रही है,परन्तु झारखण्ड का खेल तमासा banta जा रहा है. इस बार के खेल में सभी नेताओ और छुट्भईयों का बेशर्म चेहरा साफ-साफ दिखने लगा है.सिद्धांत और आदर्श का कोई नाम भी नहीं ले रहा है. दिखाने के लिए ही सही राजनीति धर्म का कुछ तो पालन होना चाहिए था.झारखण्ड के संताल परगना की राजनीती तो एकदम गरम हो गयी है.संताल परगना, जो मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि- कर्मभूमि के साथ मेरे राजनीतिक कर्म का भी क्षेत्र है, को इस हालत में देखकर दिल दुखता है.संताल परगना के duhakh-दर्द को कोई भी तो नहीं समझ रहा है.बिहार से मुक्तहोकर बनने वाले झारखण्ड में भी यह इलाका उपेक्षित ही रह गया.कहने को तो झारखण्ड के सबसे बड़े नेतागण इसे ही अपनी राजनीति का प्रयोग स्थल बनाते हैं, पर महज इसकी भावनाओं का दोहन करने के लिए ही.इस बार के इस चुनावी तमासे में इसीलिए तमासाबीनों को ही इसका फल भुगतना होगा.किसी न किसी को तो जीतना है ही,पर आख़िर-आख़िर तक कोई भी आश्वस्त नहीं हो सकेगा इस बार. और यह चुनाव संताल परगना के साथ खिलवाड़ का शायद आखिरी चुनाव होगा,क्योंकि अब यहाँ की जनता सोचने लगी है की झार...

मैं सोचता और करता रहूँगा

लगता है आप सबने सोचना छोड़ दिया है.चिंता की कोई बात नहीं.मैं हूँ न.मैं सोचूंगा भी और करूंगा भी.फिर आप सब को प्रसाद ग्रहण करने बुला लूँगा.तब तक आराम काटिए आप,क्योंकि कान फोडू भोंपू की आवाज सुनते-सुनते आप भी उकता गए होंगे.

तो क्या सोचा आपने ?

वाह भाई वाह. ये क्या सुन रहा हूँ ? देश के कोने-कोने से क्या समाचार आ रहे हैं?अभी भी वक्त है ,सुन लीजिये हमारी बात.मान लीजिये हमारी मंत्रणा.तो क्या सोचा आपने?

चुनाव और हम.

न जाने इस चुनावी मौसम में कौन क्या-क्या लिख रहा है.नामी- गिरामी लेखकों से लेकर स्वयम्भू चिन्तक--मेरी तरह,सभी कुछ न कुछ लिख रहा है ,इसकी परवाह किए बिना की कोई पढ़ भी रहा की नही?ना, ना आतंकित मत होइए ,नामी-गिरामी लेखक भी बस नाम की ही कमाई खा रहे हैं.वे भी क्या लिखते हैं उनसे उनका कोई सरोकार है या नहीं ये तो वही जाने पर पढ़ने वल्लों का शायद ही कोई सरोकार हो ऐसे लेखकों से ऐसा मैं जरूर कह सकता हूँ.सो भाई यहाँ पाठकों की नहीं लेखकों की रेलमपेल है.अगर आप लेखक हैं तो माफ़ करना मैं अपना और समय बर्बाद क्यों करूं?आपको तो पढ़ना है नहीं.अगर आप पाठक हैं तो आपका भाव बढ़ा होगा.आप मेरा लिखा क्यों पढेंगे,आपको तो मैं टिकेट देकर चुनाव जितवा सकता नही?तो मैंने सोचा क्यों न सारे रोल खुद ही कर लूँ?टिकट लेकर चुनाव लड़ लूँ,लेखक बनकर पन्ने भर लूँ,और पाठक बनकर अपना लिखा ख़ुद ही पढ़ लूँ.सो वही कर रहा हूँ यार .तुम सब भी तो वही कर रहे हो--कोई किसी के लिखे पर कमेन्ट नहीं कर रहा है,बस अपना -अपना देख रहा है.चुनाव में भी तो यही होता है.नेतागण अपना-अपना देखते हैं,चमचे-बेलचे अपना-अपना देखते हैं.जय हो इस लोकतंत्र की जय हो.इतन...

कविता कोष सचमुच औरों से हटकर है.

कविता-कोष को कल जो पत्र भेजा था उसका त्वरित उत्तर प्राप्त हुआ.संपादक अनिल जनविजय जी ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया,अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ.कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए मेरे द्वारा भेजे गए दूसरे पत्र का भी उन्होंने तुरत उत्तर दिया तथा पंकज जी से सम्बंधित सारी सामग्री मांगी.पद्य,गद्य,संस्मरण,समीक्षा,तथा पंकज जी पर लिखे गए लेखों को भी उन्होंने माँगा है.अब मैं जल्दी से जल्दी अनिल जन विजय जी को सम्बंधित सारी सामग्री यूनिकोड पर भेज दूंगा.आप सब से भी अपील करता हूँ की अगर किसी पाठक के पास पंकज जी की कोई रचना उपलब्ध हो या पंकज जी के ऊपर किसी अन्य लेखक के द्वारा लिखित कोई सामग्री उपलब्ध हो तो मुझे या कविता कोष को प्रेषित कर दें.मेरे इस ब्लॉग में कमेन्ट करते हुए भी इस तथ्य का जिक्र सुधि पाठक या लेखक गण कर सकते हैं.आइए,हम सब मिलकर पंकज जी के ऋण से उ ऋण होने हेतु इस महायज्ञ में अपना-अपना योगदान दें.संताल परगना के इस mahan vibhooti के प्रति हमारी यही sachhi shraddhanjali होगी .

http://www.kavitakosh.org

कविताकोश में आचार्य "पंकज"और उनकी रचनाओं को सम्मिलित कराने हेतु हमने आज ही कविताकोश के नाम एक इमेल भेजा है.देखना है कि इस मूर्धन्य विद्वान् और महान कवि ही नही, प्रखर स्वाधीनता सेनानी और हजारों लोगों के श्रद्धेय शिक्षक स्वर्गीय प्रोफ़ेसर ज्योतिन्द्र प्रसाद झा "पंकज"के साथ आज का इ-हिन्दी जगत न्याय करता है या नहीं.आप कि क्या राय है?कृपया प्रतिक्रिया में लिखें.

अप्रैल फूल.

पूरे देश की जनता के साथ अप्रैल फूल ही तो मनाया जा रहा है.इसे लोकतंत्र का महापर्व कह लो या चुनावी महासमर या फिर लूट का एक और मेला.जनता -जिसकी सब दुहाई देते हैं,जनता के जिस वोट के बल पर सरकार बनती है,जनता -जिसे लुभाने में सभी पार्टियाँ दिन -रत एक कर रही है,वह जनता वास्तव में है कहाँ?जाता तो माल की तरह है जीसी सिर्फ़ ख़रीदा और बेचा जाता है.जनता से पैसा लूटा जाता है ,पैसा लगाकर जनता जुटी जाती है,पैसा लगाकर जनता से आन्दोलन खड़ा कराया जाता है,गोली खाने को भी जनता को ही आगे कर दिया जाता है.इस मेले में जनता ही है,बस उसकी कमान वाला वह पीछे बैठकर कठपुतलियों की तरह सबको नाचता रहता है.कठपुतली के इस खेल में शामिल होने के लिए भी जनता ही उमड़ती है.कैसे बदलोगे यब तुम?पर तुम्हे तो बदलना होइस खेल का नियम.इस खेल में शामिल होकर--इस खेल का नियम बदलना होगा तुम्हें--तभी तुम्हारी योजना सफल होगी अमरनाथ झा. इसमे तुम्हे किसका साथ मिलता है और कौन विरोधी है इसकी पहचान तुम्हे करनी ही होगी अमरनाथ झा.पूज्य पिताजी "पंकज जी" की पंक्तियाँ क्या कहती है जरा गौर करो-- अभी जो सामने से बंधू बन आता उर को खोल कर है प...