रविवार, 4 फ़रवरी 2018

अब तो यह भी ग़ज़ल का एक आलेख ही बन गया। मौजूदा ग़ज़ल के बनने की पूरी कहानी इसके साथ ही लिख दी है मैंने। इस ग़ज़ल के साथ-साथ इसके बनने की पूरी कहानी को पढ़ने की कृपा करें, शायद कुछ टीप्पणी करने का दिल आपका भी हो जाए।
बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
जब ग़ज़ल मैंने कही
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
जब ग़ज़ल मैंने कही, तुम क्यों पशेमाँ हो गए
आज धड़का दिल मेरा, तो सब बयाबाँ हो गए।
दुश्मनोँ मेँ भी नहीँ, तुमको गिना हमने कभी
तुम हमारे ना हुए, सब तो शहीदाँ हो गए।
हैं गज़ब अंदाज अब, तेरे सितम ढ़ाने के भी
जब मिले तुम भी कभी, हट के परीशाँ हो गए।
मैं कहाँ वाकिफ के ये, फितरत हुकूमत की रही
आज तेरे साथ थे, जो कल गुरेजाँ हो गए।
तुम सिखाते हो सदा, सबको नचाने का सबब,
आज मिल तुमसे सभी, फिर देख हैराँ हो गए।
सुन अदावत तो “अमर”, होती अदब में भी नहीं
पर अदावत के हुनर, में तुम नुमायाँ हो गए।

(1)पशेमाँ – शर्मिंदा (2) बयाबाँ – जंगल, वीराना (3) शहीदाँ - शहीद का बहुवचन (4) परीशाँ – परेशान (5) गुरेजाँ – पलायमान (6) हैराँ - हैरान (7) नुमायाँ – प्रकट


पहले यही ग़ज़ल जैसी कही थी मैंने उसे इस आलेख के सबसे नीचे दी गई है, अपने मूल पुराने रूप में । यानी ऊपर की ग़ज़ल वास्तव में मेरी एक पुरानी बे-बह्र ग़ज़ल का ही परिवर्तित बा-बह्र रूप है। नीचे आप देख सकते हैं कि पहले यह बहर में नहीं थी। इसके बदले रूप के साथ इसको भी पढ़कर देखिये। बहर में ढालकर पेश करने के दोनों में क्या अंतर दिखाता है, इसे बाद में समझते हैं।
पहले मैं ये बताना चाहता हूँ कि जब ये ग़ज़ल (बे-बह्र) मैंने कहीं थी तो मुझे इसके लिए सिर्फ़ कुछ घंटे देने पड़े थे। एक ही दिन में बनकर ग़ज़ल तैयार हो गई थी। कारण यह था कि तब काफ़िया और रदीफ़ को ध्यान में रखकर ही मैं अपनी बातें कह देता था।उस वक्त मुझे 'बहर' की पकड़ नहीं थी।थोड़ा बहुत हिन्दी की मात्राओं का मिलान भर कर लेता था।उस समय मेरे लिए एक ही पैमाना था ग़ज़ल का कि यह कहने और सुनने में अच्छी लग रही है या नहीं।
लेकिन जब से बहर को समझने लगा हूँ, मैं भी जानने लगा हूँ कि जैसे शरीर में ही आत्मा निवास करती है, शरीर नहीं है तो आत्मा के अस्तित्व को समझन पाना भी असंभव है, उसी प्रकार 'बहर' के बिना कोई 'कहन' ग़ज़ल हो ही नहीं सकती है।अगर आप ग़ज़ल कहते रहे हैं तो यकीनन किसी ना किसी बहर में ही कह रहे हैं।
बेबह्र ग़ज़ल हो ही नहीं सकती।हाँ, पिंगल शास्त्र के नियमों के तहत कुछ ऐसे छन्द पहचाने गए हैं, जिनमें हिन्दी ग़ज़ल कही जा रही है। लेकिन जिन छंदों में हिन्दी ग़ज़ल काही जा रही हैं, किसी मंजे शायर द्वारा, वो भी कोई ना कोई 'बहर' ही है। चूंकि हिन्दी छंद-शास्त्र पर भी कोई विशेष पकड़ नहीं रही है मेरी, अतः मैंने ग़ज़ल कहने के लिए 'बहर' समझना शुरू कर दिया है। अतः अब कह सकता हूँ कि कुल मिलाकर काफ़िया, रदीफ, वज़्न और बहर के ढाँचे में 'कहन' रूपी आत्मा को आत्मसात करके ही ग़ज़ल कही जा सकती है।
इस कसौटी पर कसकर जब मैं अपनी कही पुरानी तथाकथित ग़ज़लों को देखता हूँ तो पाता हूँ कि कुछ को छोड़कर प्रायः सभी बेबह्र हैं। मेरी काही 100 ग़ज़लों में से सिर्फ 20 ही 'बह्र' में हैं और 80 बे-बह्र हैं।
जैसा कि ऊपर हम कह चुके हैं, मौजूदा ग़ज़ल भी पहले बे-बह्र ही थी, लेकिन इस ग़ज़ल के 'कहन' से मेरा काफी लगाव है और इसके रदीफ़ 'हो गए' को मैं नहीं बदलना चाहता था। मैं मानता हूँ कि इसमें जो 'कहन' है वह 'हो गए' रदीफ़ में ही कहना संभव है। परंतु 'हो गए' रदीफ़ के साथ काही गई ये ग़ज़ल किसी 'बहर' में फिट ही नहीं बैठ रही थी। अतः मैंने संभावित और उपर्युक्त 'बहर' समझने के लिए अपने पास उपलब्ध ग़ज़ल की तमाम किताबें छान मारीं। दीवाने-मीर, दीवाने-गालिब, और जफ़र की शायरी, के अलावे मैंने कई अन्य किताबों को भी खँगाला।
मसलन; अमर देहलवी की किताब "उर्दू शायरी के साथ रंग", फरहत एहसास की किताब "ग़ज़ल उसने छेड़ी- खंड IV" एवं अन्य।
इनके अलावे मैंने नसीब अजमल की "चारों तरफ बिखरे हुए", कुँवर बेचैन की "खुशबू की लकीर", दुष्यन्त कुमार की "साये में धूप" भी खँगाली।
कुछ नए शायरों, जैसे कि, कुमार साइल की "रात से पहले", उर्मिला माधव की "बात अभी बाकी है" एवं सौरभ शेखर की "एक रौज़न" जैसी पुस्तकें भी बारीकी से देखी मैंने।
इस तरह लगभग एक हजार से भी अधिक ग़ज़लों को देखने के बाद मुझे सिर्फ तीन ग़ज़लें मिलीं जिनका रदीफ "हो गए" है। ये निम्नलिखित हैं:
ग़ालिब -
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोये गए हम ऐसे, कि बस पाक हो गए।
सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मयकशी
थे ये ही दो हिसाब, सो यों पाक हो गए।
रुस्वा-ए-दह्र गो हुए आवारगी से तुम
बारे तभी 'अतों के तो चालाक हो गए।
कहता है कौन नाल:-ए-बुलबुल को, बेखबर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाकू हो गए।
पूछे है क्या वुजूद-ओ-अदम अह्ल-ए-शौक का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए।
करने गए थे उससे, तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह, कि बस ख़ाक हो गए।
इस रंग से उठाई कल उसने असद की लाश
दुश्मन भी जिसको देख के ग़मनाक हो गए।
हैरत इलाहाबादी:
बो सा लिया जो चश्मे का बीमार हो गए
जुल्फ़ें छूईं बला में गिरफ्तार हो गए।
सत्ता है, बैठे सामने तकते हैं उनकी शक्ल
क्या हम।भी अ'क्स-ए-आइना-ए-यार हो गए।
बैठे तुम्हारे दर प तो जुंबिश तर्क न थी
ऐसे जमे कि साया-ए-दीवार हो गए।
हम को तो उन के ख़न्जर-ए-आब्रू के इश्क में
दिन जिंदगी के काटने दुश्वार हो गए।
कुमार साइल:
कल ज़िन्दगी-ओ-मौत एक जान हो गए
क़िस्मत का इक अज़ीम इम्तिहान हो गए।
तक़्दीर देखिए कि ख़ार एक भी न था
फूलों के बीच हम लहूलुहान हो गए।
धोक़ा तो जब कहें, क़रार तोड़े गर्म कोई
अब क्या इलाज, खुद ही बदगुमान हो गए।
ऐसी चली हवा कि हाथ ले गई छुड़ा
कल यार थे जो आज दास्तान हो गए।
आँखों में आ के अश्क एक दम ठहर गए
पलकों पे आ के जैसे पासबान हो गए
वो आँधियाँ उठीं कि बाज़ियाँ पलट गई
जर्रे जो धूल के थे, आस्मान हो गए।
'साइल' के आँसुओं का तो असर नहीं हुआ
झूठे जहान के वो क़द्रदान हो गए।
इस तरह मैं ये अर्ज करना चाहता हूँ कि "हो गए" रदीफ में ग़ज़लें बहुत कम हैं, कम से कम मेरे पास उपलब्ध सामाग्री में, कारण चाहे जो भी हों। इसलिए मौजूदा ग़ज़ल के प्रति मेरा लगाव और बढ़ गया। सच बयाँ कर रहा हूँ कि पिछले पूरे एक हफ्ते में औसतन पाँच-छह घंटे प्रति दिन देने के बाद भी जब मुझे सफलता नहीं मिली तो 'हो गए' रदीफ़ में ही बह्र में कहने के लिए यह ग़ज़ल मेरे लिए चुनौती बन गई। तो फिर मैंने तय कर किया कि समय चाहे जितना भी लगे, मैं 'हो गए' रदीफ़ में ही यह ग़ज़ल मुकम्मल 'बह्र' में कहूँगा।
बहुत सोचने के बाद तय किया कि इसे 2122 2122 2122 212 की बहर में कहने की कोशिश की जाए। इस कोशिश में मुझे 'काफ़िया' बदलना पड़ा। पहले काफिया 'आर' था। इस काफिये के साथ 'हो गए' रदीफ़ वाली ग़ज़ल ऊपर वाली बह्र में नहीं कह पाया। मजबूर होकर 'आँ' काफिया इस्तेमाल करना पड़ा। इस क्रम में काफिये के लफ़्ज़ उर्दू से ही लेने पड़े जो हिन्दी के पाठक/श्रोता के लिए कुछ कठिन हो गए हैं। लेकिन इस प्रयोग के बाद अब लगता है कि शायद कुछ सफलता मुझे मिली है, हालाँकि अभी भी इसमें कुछ कमियाँ तो जरूर रह गई होंगी, जिनके बारे में एक आम ग़ज़ल-प्रेमी शायद न बता पाएँ या शायद बता भी पाएँ। परंतु उस्ताद जरूर बता देंगे। इसलिए इसे अब उस्ताद को दिखाऊँगा। उस्ताद की राय के लिहाज से इसमें फिर कुछ बदलाव हो सकते हैं या फिर नहीं भी हो सकते हैं।
लेकिन अभी मैं सभी मित्रों, पाठकों और प्रशंसकों के लिए, जिस रूप में बह्र में अब ग़ज़ल बनी है उसे ऊपर पोस्ट कर चुका हूँ। साथ ही पहले की बे-बह्र ग़ज़ल भी यहाँ पोस्ट कर दे रहा हूँ। आप सब से विनम्र निवेदन है कि जो भी त्रुटियाँ पकड़ में आ जाएँ, कृपया बेहिचक यहाँ कमेन्ट के रूप में लिखें। यकीनन आपके कमेन्ट से मेरे अंदर के शायर को नई दृष्टि मिलेगी और यह आपका प्यार तथा उपकार-- दोनों होगा।
ग़ज़ल क्या कहे मैने (बे-बह्र -- पुरानी)
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ग़ज़ल क्या कहे मैंने तुम तो खबरदार हो गए
जज्बात जो भड़के मेरे सब तेरे तरफदार हो गए।
दुश्मनों की कतार में तुमको नहीं रक्खा हमने
हम सावधान ना हुए और तुम असरदार हो गए।
सितम ढ़ाने के भी गजब तेरे अन्दाज हैं जालिम
जिनसे भी तुम हट के मिले वो सरमायेदार हो गए।
कुछ हम भी तो वाकिफ हैं हुकुमत की फितरत से
सब जो कल तक थे मेरे आज तेरे ही वफादार हो गए।
कुछ तो सिखलाते हो तुम दुनियादारी का सबब
यूँ ही नहीं मिलकर तुमसे कुछ तेरे तलबदार हो गए।
कहते हैं के अदब में अदावत नहीं होती है 'अमर'
अदावत की हुनर में तो अब तुम भी समझदार हो गए।

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