शुक्रवार, 19 जून 2020

दुमका की एक सुबह

यहाँ दुमका में भी सुबह, गाँव की तरह ही जल्दी हो जाती है। 5 बजे सभी सो कर उठ जाते हैं। 5 बजे सड़कों पर चलते-फिरते लोगों के दर्शन हो जाते हैं। पहाड़ी के ठीक नीचे अपना घर है "पंकज भवन"।
पिताजी आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' को तत्कालीन बिहार सरकार ने बीस कठ्ठे (एक बीघा) की जमीन लीज पर दी है, जहाँ वे रहते थे और जहाँ हमारा परिवार आज भी रहता है।
'पंकज' जी जैसे मनीषी और सरस्वती साधक जहाँ रहते हों उसका महत्व प्राचीन परंपरा के गुरुकुल से कम क्या हो सकता है! 'पंकज' जी का आवास एक गुरुकुल बन गया था, जिसकी ख्याति तत्कालीन बिहार के दूरस्थ क्षेत्रों तक फैली हुई थी। यही पवित्र गुरूकुल, "पंकज-भवन" या "पंकज-लाॅज" के नाम से लोक-मानस की स्मृति में स्थायी रूप से बस गया, क्योंकि दुमका में विद्यार्थियों के बसेरे को लाॅज कहने की पुरानी परंपरा रही है।
41 बरस पहले, 1979 में जब मैंने एस पी काॅलेज,  दुमका में दाखिला लिया था तब भी यही परंपरा थी। परंपरा 'लोक स्मृति' का हिस्सा होती हैं। उसमें विद्यमान 'लोक-जीवन' के तत्वों की खोज हमें अपने भूले-बिसरे जीवन-मूल्यों और हमारे मनीषियों की साधना से परिचित कराती है। 'परंपरा' और 'लोक स्मृति' युगों से पल्लवित संस्कारों से हमारा परिचय कराने में सक्षम हैं।
इस "पंकज-भवन" के गुरुकुल ने न जाने कितने छात्रों को (सैकड़ों की संख्या में तो जरूर रहे होंगे), पिताजी के सानिध्य में रहकर जीवन में सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया। यहाँ से प्राप्त "गुरु-मंत्र" ने बिहार और झारखंड को कई शीर्षस्थ पदाधिकारी, चिकित्सक, अभियंता, राजनेता, समाजसेवी, शिक्षक, शिक्षाविद, साहित्यकार और पत्रकार दिये।
संभवतः यही "पंकज भवन" 1955 से ही दुमका और संताल परगना में हिन्दी साहित्य की अलख जगाने वाला और कवि-कर्म को भी  राष्ट्र-निर्माण का पुनीत कर्म मानकर सद्य-स्वाधीन भारतीय गणराज्य में राष्ट्रीयता और समता-मूलक मानवीय-मूल्यों की स्थापना के साथ ही सामाजिक असमानता को समाप्त करने हेतु उभरे एक ऐतिहासिक- साहित्यिक-साँस्कृतिक आंदोलन -- "पंकज-गोष्ठी"-- का मुख्यालय भी बना।
पहाड़ की तलहटी में बसे मुहल्ले का नाम ही है शिव पहाड़। "शिव पहाड़" और "पंकज-भवन" बाबा "पहाड़ नाथ" की असीम अनुकंपमा और "आचार्य पंकज" की अक्षय कीर्ति-गाथा का पर्याय रहा है, जो दुमका की साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा और स्मृति का अविच्छिन्न हिस्सा है।
आज सुबह से ही छत पर बैठकर मैं अतीत के झरोखे से देखने की कोशिश कर रहा था कि कैसे बनते-बनते परंपरा जीवन-मूल्य बन जाती है!
लेकिन कैसे, माटी के संस्कार से अनभिज्ञ कोई अजनबी, अपनी 'छिछली जानकारी' और 'अज्ञानता' से उटपटांग बातें उछालकर वर्षों से बने जीवन-मूल्य और वर्षों की साधना से अर्जित यश को तार-तार करने की असफल कोशिश करता है, इसे यहाँ आकर मैं करीब से देख-समझ पा रहा हूँ।
कुछ लोग जिस तरह से इस पवित्र "पंकज-भवन" की कीर्ति-गाथा पर कीचड़ उछालने का काम कर रहे हैं, उसके बरख़्श मुझे याद आ रहीं हैं रहीम की दो पंक्तियाँ :

जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकिहैं कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं लपटत रहत भुजंग।।

लेकिन मैं आश्वस्त हूँ 'लोक जीवन' की सामूहिक चेतना की न्यायप्रियता को लेकर। आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' जैसे मनीषी के अवदानों और संस्कारों की विरासत को लोक-चेतना अपनी शाश्वत स्मृति में अक्षुण्ण रखेगी, हर हाल, इसकी आश्वस्ति है मुझे।

सुबह-सुबह, यहाँ बैठे-बैठे आज गाँव की याद भी आ रही है। गाँव में सुबह बहुत जल्दी हो जाती है। गाँव में 4:30 पर जब नींद खुलती थी और 4:45 पर जब तंद्रा भंग होती थी तो देखता था चारों ओर जीवन ही जीवन है। 77 वर्षीय 'मदन' दा और 92 वर्षीय 'छोपी' का (दोनों पंकज जी के छात्र) हाथ में बोंकड़ी (छड़ी) लेकर टहलते हुए दिखते थे। मदन दा स्पोर्ट्स शूज में तो छोपी का बिलकुल नंगे पाँव। 'मोहतवाइन' ( हमारे घर के मैनेजर 60 वर्षिय विनोद महतो की पत्नी) चापाकल से पानी लेकर आती दिखाई देतीं थीं। मुसलटोला (मुसहर टोला) की मुर्गियाँ प्रेम से बेखौफ़ हमारे खलिहान में, ब्राह्मण के खलिहान में दाना चुगते हुए दिखतीं थीं, जिसे बार-बार भगाने का असफल प्रयास किया जाता था। मुर्गियाँ शायद नहीं जानतीं हैं, या नहीं मानती हैं उन वर्जनाओं को जिनके तहत एक ब्राह्मण के घर के अहाते में उनका प्रवेश निषिद्ध माना जाता है।
लेकिन साथ-साथ बाबू दा और बुतरू दा के द्वारा बनवाये गये मंदिर प्रांगण को बासुदेव मुसहर की पत्नी प्रेम से धोते-बुहारते हुए भी दिख जातीं थीं। उसे भी पता है कि प्रेम वर्जनाओं का उल्लंघन भी है।
सुबह-सुबह मुझे कई श्रद्धालु शिवलिंग की पूजा-अर्चना कर बाहर निकलते हुए दिखते थे।
गाँव के बीचो-बीच बनी विकास की संवहिका, मिट्टी और रोड़ी बिछी हुई नयी सड़क पर ट्रैक्टर और गाडिय़ों की तेज रफ़्तार से उड़ती धूल की आँधी घर के बाहर बने पुल पर बैठने नहीं देती, लेकिन पुरानी स्मृतियों के साथ जीने की ललक धूल फाँक कर भी पुल पर बैठे रहने को विवश करती थी। पुल पर बैठकर पुराने दिनों को याद करता रहता था।
क्या फिर कभी लौटकर आएँगे वो दिन!
बहुत कुछ नहीं बदला गाँव में। लेकिन बहुत कुछ ऐसा हुआ, विकास की ऐसी बिजली गिरी कि गाँव का गँवईपन ही मरने लगा है।
कैसे बचेगा गाँव? कौन बचाएगा गाँव?
कैसे बचेगी परंपराएँ? कैसे बचेंगीं स्मृतियाँ? कैसे बचेंगे जीवन मूल्य? वर्तमान विकास के मोहपाश से कैसे बचेंगे हम?

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