शनिवार, 27 जून 2020

पितृ-मिलन (कविता)


पितृ-मिलन
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बाबू दा
तुम्हारे निमित्त
धर्म-शास्त्र सम्मत
समस्त कर्मकांड
गाँव में ही पूर्ण कर
अब
सब दुमका आ गये।
दुमका आकर
खूब खोजा तुम्हें
भाभी के साथ मिलकर
उस मसनद को टटोला
जिसे पीठ के पीछे
टिकाया था तुमने
आखिरी वक़्त
कि शायद तुम्हारा
नया पता-ठिकाना
मिल जाए!
बहुत देर तक खोजा
बल्कि खोजता ही रहा
ठीक उसी तरह
जैसे
पिछले चौबीस वर्षों से
खोज रहा हूँ
छत पर चढ़ने के लिये
बनी सीढ़ियों पर
माँ को।
देर तक बैठा रहा मैं
तुम्हारी कुर्सी पर
जिस पर
बैठे बैठे तुम
अपने पौत्र 'स्नेह' के साथ
खेलते रहते थे
'एसी' नहीं चलाने पर
'स्नेह' झगड़ता था तुमसे
और हार कर
तुम चला देते थे 'एसी'
हार कर भी
जीत जाते थे तुम।
लेकिन 'स्नेह' ने
झगड़ा नहीं किया मुझसे
शायद वह जानता है कि
तुम्हारी कुर्सी पर बैठने से ही
कोई तुम सा नहीं हो जाएगा
तुम्हारा रिक्त स्थान
कभी भरा नहीं जाएगा।

बाबू दा
तुम चले गये
कहाँ चले गये?
जाना नहीं था
जाना चाहते भी नहीं थे
फिर भी तुम चले गये?
जाना पड़ा तुमको
काल के प्रवाह में
ठीक उसी तरह
जिस तरह
तेंतालीस साल पहले
बाबू का गये थे
डाक्टर नहीं आ सका था तब!
डाक्टर नहीं आ सका अब!
तब साधन नहीं था
कि गाँव से
महज दो किलोमीटर दूर
जल्दी से सारठ पहुँचकर
कोई बुलाता डाक्टर
और
बचा लेता बाबू का को
नुनूका और छोटबाबू
पैदल ही निकल पड़े
डाक्टर को बुलाने
डाक्टर आये भी
लेकिन देर हो चुकी थी!
क्या बदला
इन तेंतालीस वर्षों में?
सब कुछ
दुहराया गया
गाँव की तरह ही
यहाँ इस दुमका शहर में भी
इस दुमका शहर में,
जो उप-राजधानी है
कोई डाक्टर नहीं आ सका
किसी डाक्टर के पास
नहीं ले जा सके तुमको
करोना के
भयाक्रांत वातावरण में
लाकडाऊन की कैद से
बाहर निकलकर
कोई डाक्टर नहीं आया
तेजी से गिर रहे
तुम्हारे रक्तचाप को
स्थिर करने के लिये
तुम्हें बचाने के लिये
कोई नहीं आया!
जीने की तुम्हारी इच्छा
तुम्हारे साथ ही चली गयी
तुम्हें बचा नहीं सका कोई
और
लाकडाऊन ने
ले ली तुम्हारी जान
हाँ लाकडाऊन ने ही
ले ली तुम्हारी जान!

बाबू दा
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी रिक्तता से उत्पन्न
शून्यता के अथाह सागर में
डूब रहे हैं हम सब
दिखता नहीं
कोई रास्ता
कैसे सँभालें सामाजिक-कौटुम्बिक
ताने बाने को
तुम्हारे बिना।
कौन अब
अपनी उपस्थिति की धमस से
हर सम्त केन्द्रीय व्यक्तित्व बनकर
ध्रुव तारे की तरह
चमकता रहेगा
प्रत्येक सामाजिक-पारिवारिक
समारोह में
कौन अब
शादी-व्याह, यज्ञोपवीत, मुंडन
नामकरण संस्कार के अवसर पर
कालीपूजा-चेताली पूजा
डोरा-सूरजाहू पूजा
सरस्वती पूजा-शीतला पूजा
दशमी-शिवरात्रि
के अवसर पर
तड़क-भड़क और चकाचौंध
पैदा करके
अपने आभामंडल में
दमकता रहेगा।
कोई भी समारोह
अब समारोह नहीं होगा।

बाबू दा
तुम्हारी छवि
बुतरू दा में
तलाश रहे हैं हम
लेकिन उनकी व्यथा
देखी नहीं जाती
आदत जो पड़ गयी थी बुतरू दा को
रोज-रोज फोन पर
तुमसे बात करने की
तुम्हारी ख़बर लेकर
हम सबको बताने की
तुम्हें याद करके
तुम्हारे साथ हुई बातें याद करके
कभी सुबक-सुबक कर
तो कभी फफक-फफक कर
रोते हैं बुतरू दा
अंदर ही अंदर घुल रहे हैं
रो रहे हैं अंदर ही अंदर
लेकिन कर्मयोगी की तरह
सारे लौकिक कर्म भी
करते जाते हैं
'कुणाल' का कवच
और हम सबकी ढाल बनकर!

बाबू दा
कितना अखरा हमें
तुम्हारे ही एकादशा श्राद्ध के दिन
तुम्हारा अभाव
खाने के लिये
सिर्फ़ हम दो भाई बैठे
पहली बार
और हमारी आँखे
ढूंढ रहीं थीं
तुमको ही बार-बार!
याद है न तुम्हें
हमेशा हम तीन भाई
एक साथ निकलते थे
एक साथ बैठते थे
एक साथ खाना खाते थे
तुम्हारे टेबल पर खाना खाते समय
तुम्हारी कुर्सी पर बैठे हुए
लग रहा था
मानो आखिरी बार
समेट रहा हूँ
तुम्हारी छुवन का एहसास
लेकिन अब?
रिक्तता
शून्यता
बस तुम्हारी यादें।

बाबू दा
तुम बीमार थे
पर मिलने न आ सके हम
दिल्ली की दुनिया में
अस्त-व्यस्त
या
मस्त (?)
मर-मर कर
जीने को अभ्यस्त
हम
तुमसे मिलने न आ सके!
हम आये
लाकडाऊन को तोड़कर
तूफ़ान से लड़कर
भयानक बारिश और
आँधी-तूफ़ान का सामना कर
दिल्ली से लखनऊ
फिर लखनऊ से गया
फिर गया से गाँव
नक्सली इलाकों में
मीलों गाड़ी चलाकर
जान को हथेली में लेकर
हम आ ही गये गाँव
पहुँच ही गये गाँव
बुतरू दा भी
करोना-लाकडाऊन को
धता बताकर
मुम्बई छोड़कर
पहुँच गये गाँव
घर पहुँच गये सबलोग
पर तुम नहीं मिले!
हम आ गये उस घर में
माँ के जाने के बाद जहाँ
तुम्हारे बिना
रहना नहीं सीखा था
तुम्हारे बिना किसी को
घर पर बुलाना नहीं सीखा था
अब वहीं बैठकर
आँगन के बाहर
खलिहान में
कुटुंबियों-परिजनों के संग
तुम्हारे श्राद्ध के लिये
विमर्श कर रहे थे हम
निमंत्रित किये जाने वाले
मेहमानों की
सूची बना रहे थे हम।
जिन कौटुम्बिक नियमों को
जीवन भर नहीं जाना
जिन रीति रिवाजों को
जीवन भर नहीं माना
उन्हें सीख-समझ रहे थे हम
या कहें
कुछ भी न समझते हुए
सब कुछ समझने की
प्रतीति करा रहे थे।

बाबू दा
अंतिम विदाई में
शामिल न हो सके हम
तीसरे दिन
फूल चुनने के लिये भी
पहुँच नहीं सके हम
"...शमशाने च यः तिष्ठति सः बांधव:"
कहाँ साथ दे सके शमशान तक हम
कैसे बंधु हैं हम
चौथे दिन पहुँचे घर
तुम्हारी चहेती बेटी कुमकुम के साथ
तुम्हारे बड़े दामाद को लेकर
क्योंकि
प्रयागराज में
गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम स्थल पर
अस्थि विसर्जन का कार्य
नाती, भीगना और दामाद को ही संपन्न करना था
संगम के प्रवाह संग
तुम्हें महासागर में मिलना था
इस लोक से परलोक गमन था
व्यष्टि से समष्टि बननकर
भौतिक सत्ता को तिरोहित कर
बह्मांड के केन्द्र में पहुँचकर
मोक्ष प्राप्त करना था
इसीलिये तो
कुमकुम के साथ
बड़े दामाद को लेकर
हर हाल हमें पहुँचना था।
और सातवें दिन
दामाद बाला बाबू
भगीना कौशल और नाती हर्ष के साथ
भोर साढ़े चार बजे निकल पढ़े प्रयागराज
लेकर तुम्हारे अस्थि-अवशेष
पुल पर बैठा
देखता रहा मैं
अनंत की ओर तुम्हारी यात्रा!

बाबू दा
धरी की धरी रह गयी
तुम्हारे साथ बेफिक्र होकर
जीने की तमन्ना।
बाबू दा
बहुत गिला-शिकवा है तुमसे
बचपन से आजतक
खुलकर बात नहीं कर पाया
लेकिन सोचता रहा
एक ही साथ एक ही बार
बता दूँगा अपने मन की बात
लेकिन कुछ भी बता न सका
काफ़ी देर कर दी हमने
कहने की व्याकुलता
धरी की धरी रह गयी।
पेट भर बात करने की इच्छा
मन में ही मर गयी।
हजारों बेडियों में जकड़े
हजारों घाव लिये
हजारों बार
अपमान के घूँटपीकर
जीने को विवश
अपने अंतर्मन की व्यथा
दिखला नहीं पाया
कभी तुमको
इस डर से
कि कहीं कुछ हो न जाए तुम्हें!
भूला नहीं हूँ
तेंतालीस बरस पहले का दृश्य
जब गाँव के आँगन में
तुम्हारी-हमारी आखों के सामने
आधी रात अचानक
हम सबों को छोड़कर
बाबू का चले गये थे
और तुमने
बाबू का की जगह लेकर
अपनी छत्रछाया में
हमें निर्विघ्न आगे बढ़ने हेतु
हम दो किशोर अनुजों के
पिता बनने हेतु
उत्तरीय छूकर
कसम खायी थी
हमारे लिये तुम
बाबू का बन गये थे!
और हम भी तुमको
कभी खोना नहीं चाहते थे
बाबू का की तरह
इसलिए कुछ भी नहीं बताते थे
तुम्हें हम!
तुम तो समझ रहे होगे न
कि बहुुत कुछ बताने की चाह होते हुए भी
क्यों नहीं बताया तुम्हें कुछ भी
कभी भी
क्यों हमेशा चुप रहा?
तुम जानते थे न
कि खोना नहीं चाहते हम
कभी तुमको!
लगता था
जब तुम निश्चिन्त हो जाओगे
चिंता मुक्त हो जाओगे
तो खुलकर दिखाऊँगा तुम्हें
क्षत-विक्षत
अपने मन-प्राण
और पूछूँगा
कि क्यों इतनी कठिन तपस्या
मेरे ही हिस्से में आयी
क्यों बचपन से लेकर
प्रौढ़ावस्था तक
खुलकर नहीं हँसा मैं
क्यों क्रूर नियति ने
पहले से बड़ा आघात
हर बार दिया मुझको
क्यों?
क्यों?
क्यों मैं अपने से बात करता रहा
खुद से ही लड़ता रहा
अपने-आप में खोया रहा!
क्यों तुमने पूरी होने न दी
मेरी यह साध?
सुना नहीं क्यों तुमने
मेरा मौन आर्तनाद?
पढ़ी नहीं तुमने क्यों
मेरी चुप्पी की आवाज़?
छोड़ दिया सबको
छोड़ दिया हमको
पहुँचा दिया वहीं
जहाँ तेंतालीस साल पहले थे हम सब
बाबू का के जाने के बाद!

बाबू दा
एक तरफ़ तुम्हारे नहीं रहने का शोक था
तो दूसरी तरफ़
तुम्हारे मोक्ष के निमित्त
शास्त्रीय कर्म संपन्न करने की लगन और तन्मयता
भरी-भरी आँखे
परंतु मंत्रोच्चार करती जिह्वा
मुद्राओं के भाव करते
एकादश श्राद्ध के दिन
पुरोहित और महाब्राह्मण का आशीर्वाद ही
मोक्ष-मार्ग का अवलंबन
बछिया की पूँछ
वैतरणी पार कराने नाव
गौ माता की पूजा
परलोक-गमन-पथ
निर्विघ्न करने का साधन
महाब्राह्मण को गौमाता का दान
वृषोत्सर्ग श्राद्ध कर्म
सर्वोत्तम श्राद्ध कर्म
वृष की दोनों जंघाओं पर
चक्र और त्रिशूल के निशान
समस्त शास्त्र विहित कर्म
संपन्न करने के बाद
महाब्राह्मण दम्पति की पूजा
भाट-ब्राह्मण द्वारा
मृदंग की थाप
कीर्तन दल द्वारा
हरिनाम भजन
देवघर के
तीर्थ पुरोहितों
वैदिक पंडितों द्वारा
सस्वर वेद-मंत्रोच्चार की ध्वनि
और
'मधुपर्क' का महाप्रसाद
ग्रहण करते महाब्राह्मण
सब के सब बता रहे थे
कि तुम चले गये बाबू दा!
पर दिल है
कि मानता ही नहीं
कि सारे कर्मकांड
इस बात की गवाही है
कि तुम चले गये!

बाबू दा
तुम सचमुच चले गये
पिता-पितामह-प्रपितामह के पास
ज्योतीन्द्र देव, वसंत देव
प्राणधन देव के पास
बाबू का, नुनू
और प्राणधन ठाकुर के पास!
इन्हीं निर्दयी आँखों ने देखा
पितृ-मिलन का वह
हृदय विदारक दृश्य
जब पुरोहित
पिण्ड से पिण्ड मिला रहे थे
तुम्हें पितृलोकवासी बना रहे थे
और अपने पुत्र
'कुणाल' के हाथों
'पिण्डदान' पाकर तुम
परलोक वासी
'पितर' बन रहे थे
पिण्ड' से 'पिण्ड' मिल रहे थे
पितृ मिलन हो रहा था
और तुम हो रहे थे मुक्त
सांसारिक बंधनों से!
सब कुछ खुला खुला सा था
सब कुछ धरा धरा सा था
पुरोहित बार-बार सुना रहे थे
"पुत्रार्थे क्रियते भार्या
पुत्र: पिण्ड प्रयोजनम्"

अमर पंकज
9871603621

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