शनिवार, 27 जून 2020

मैं भी हो आया बुक फेयर (कविता)

मैं भी हो आया बुक-फेयर
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

कई सालों बाद
इस साल मैं भी
हो आया
बुक-फेयर
मेट्रो से उतरकर
मेट्रो स्टेशन में ही
टिकट लेने का चला चक्कर
टिकट लेकर
काफी धूमकर
भूल-भूलैया से रास्ते
तेढ़ी-मेढ़ी
उबड़-खाबड़
थी वह डगर
कम से कम
एक किलोमीटर
पैदल चलकर
पहुँच गया मैं
बुक-फेयर
लेकर घर आ गया
बहुत सारी किताबें खरीदकर।
मैं भी हो आया बुक फेयर।

रास्ते में
मूँगफली बेचने वाले
पावभाजी सैंडविच पापड़
आलू के पराठे खिलाने वाले
और न जाने क्या-क्या
दिखाने वाले
विक्षुब्ध विश्वामित्र द्वारा
बनाई गई अजूबी दुनिया के
अजूबे वासिंदे की तरह
आज भी
एक अलग दुनिया में
त्रिशंकु बने हुए
मजबूर होकर टंगे हुए
कई लोगों का
लगा हुआ था
बुक फेयर के बाहर
एक और फेयर
मैं भी हो आया बुक फेयर।
बाहर के इस फेयर में
मिल रहीं थी किताबें भी
मंहगी-मंहगी किताबें
सस्ते में मिल रहीं थी
बेचने वाले भी
सस्ते लग रहे थे
कपड़े मैले जो पहन रखे थे।
मैं भी उधर से गुजर रहा था
अपना भद्रवर्गीय चरित्र ओढ़े
नाक-भौं सिकोड़े
मेरे ओढ़े हुए
भद्रवर्गीय चरित्र को
बुक-फेयर पहुँचने की जल्दी थी
इसलिए
नही खरीदी मैंने
उनसे कोई किताब
आगे बढ़ गया मैं भी
एक सरसरी नजर देखकर
अजूबी दुनिया से बचकर
स्वयं को
भद्रलोक का अंग मानकर
मैं भी हो आया बुक-फेयर।
वैसे वहाँ थी
हर तरह की किताब
हर उम्र की किताब
हर क्लास की किताब।
गालिब की किताब
गुलजार की किताब
अमृता पीतम की किताब
हैरी पोर्टर की किताब।
हिन्दी उर्दू पंजाबी
और अँग्रेजी की किताब।
तीस रुपए में एक
पचास रुपए में दो
और सौ रुपए में तो
मिल रही थी
पाँच-पाँच किताब।
सभी लड़के
आवाज लगाते
मोल भाव करने पर
रीबेट देने की बात कहते
तरह-तरह से लुभाते
ललचाई आँखों से
आने जाने वाले लोगों को
संभावित गाहक मानते
चिकनी-चुपड़ी बातों से
बिक जाएँ किताबें
पूरी कोशिश करते
दिनभर लगे रहते
चलाते रहते
कोई ना कोई चक्कर।
मैं भी हो आया बुकफेयर
आखिरी दिन था
जानता था मेला बड़ा है
संभव कहाँ था जाना
एक-एक हाल
इसीलिए
तसल्ली से धूमा
कुछ चुनिंदा हाल
देखा कुछ स्टाॅल
और इस तरह
पूरी कर ली
रस्म अदायगी
कुछ किताबें खरीदकर
मान लिया
किताबों की दुनिया में
मैंने भी खरीद लिए
अपने हिस्से के शेयर
मैं भी हो आया बुक-फेयर।
खुद को भी पढ़ाकू बताने के लिए
अपनी मौजूदगी जताने के लिए
खर्च करने पड़े कुछ पैसे
मुश्किल से बचते हैं जो
महीना गुजरने के बाद
रोजमर्रा की जरूरतें
पूरी होने के बाद
मकान-गाड़ी की किस्त
चुकाने के बाद
बीबी की फेहरिस्त
आधी-अधूरी
पूरी करने के बाद।
अपनी ओढ़ी हुई चादर
हमेशा सफेद बनी रहे
इसके लिए ही
देता रहा हूँ
हर किस्म की किस्त
उम्र-भर
जीता रहा हूँ मैं
किस्त दर किस्त
देख लीजिए
जिंदगी ही बन गई है
एक मुकम्मल किस्त।
किस्तों में जिंदगी बिताकार
अधूरी ख्वाहिशों
अतृप्त कामनाओं
और सुरसा सी बन चुकी
एक से बढ़ाकर एक
उलझनों के बीच
रास्ता निकालकर
लेकिन चलता रहा
यूँ जीवन भर
मैं भी हो आया बुक-फेयर।
किताबें खरीदकर
अपने लेखक-कवि होने का
प्रमाण-पत्र बटोरने
या फिर कवियों में
शुमार होने का जुगाड़ भिड़ाने
मैं जाकर बैठ गया
लेखक मंच की दुकान में
एक खाली पड़ी कुर्सी खींचकर।
इस मंच की छोटी सी बैठक में
बड़ी-बड़ी बातें हो रहीं थीं
मुझे भी बहुत कुछ जानने का
मौका मिल गया
आज के लेखकों की
मिमियाती आवाज और उन्मत्त बोल सुनकर।
मैं भी हो आया बुक-फेयर।
देखा मैंने वहीं
कुछ आधुनिकाओं और वागवीर वीरांगनाओं को
लग रहीं थी
निपट आकेली
लेकिन बन रहीं थीं
नारी-स्वातंत्रय की
स्वघोषित झंडाबरदार
विदाउट मैन रहने की
लगाती गुहार।
टेलीविजन पर पूरी तरह मेकअप में
अक्सर सुनाई देती हैं
कई आवाजें तेज-तर्रार।
यहाँ भी मंच के आस-पास
हवा में तैर रहीं थीं
वैसी ही स्वर-लहरियाँ
लगातार
कटीली-गंधहीन मुस्कान भी
बिखर रहीं थी
चारों-तरफ बार-बार।
महिला-विमर्श के
धुरंधरों को भी
देखा मैंने
एक हाथ में क्लच
दूसरे हाथ में मोबाइल
और कंधे से झोला लटकाए
घूमते हुए
लेखक मंच के आस-पास
स्त्री-पुरूष में भेद किए बिना
बड़े आलोचकों की ओर
एकटक रहीं थी निहार
बार-बार।
अकेले होने का
ले रही थी
भरपूर आनंद
सशक्तिकरण के दौर में
झोला ढोने का आनंद
अपना भार उठाने का आनंद।
आनंद का सफर
बदस्तूर जारी था
लेकिन
सशक्तिकरण का सफर
थोड़ा भारी था
इस बार
उन्हीं पर थीं सबकी नजर
उनकी थी कहीं और नजर
मैं भी हो आया बुक-फेयर।
मेला खत्म होने को था
सात बज चुके थे
इसलिए मैं भी
खरीदी गई किताबें समेटकर
लेखक-मंच के पास ही
खो गए मेट्रो-कार्ड को
बार-बार यादकर
कोस रहा था खुद को।
कोसना वाजिब था दोस्तो
एक सौ दस रुपए बचे हुये थे
पचास रुपए की धरोहर राशि अलग
यानी कुल
एक सौ साठ पुए थे मेट्रो कार्ड में
और आमदनी अठन्नी
खर्चा रुपया एक की तर्ज पर
सौ साठ रुपए का चूना लगाकर
बार-बार खुद को कोसकर
निकाल आया मैं
हाल के बाहर
एक बार फिर उसी दुनिया में
जहाँ व्यवस्था द्वारा
त्रिशंकु बना दिये गए लोगों का
अब भी लगा हुआ था हुजूम।
इस बार इस दुनिया में
आ गए थे और कुछ किरदार
अब यह दुनिया भी
लगने लड़ी थी असरदार
नकली गहनों के
मोल-भाव में मशगूल
उम्र दराज नहीं
मेरी ही हमउम्र
खाए-अघाए घरों की
भरी-पूरी हसीनाएँ
सुंदरियाँ कहिए हुजूर
चहक-चहक कर
तफरीह कर रहीं थीं
खूब खिल रहीं थीं
सारी थकान उनकी
यहीं धुल रही थी।
अपने बच्चों के साथ
हसीनाएँ पूरी तर
पिकनिक मना रहीं थीं
पतिदेव द्वारा दी गई छूट का
भरपूर लुत्फ ले रही थीं।
पतिदेव भी मुग्ध थे
अपनी प्राण-पियारी की
अटखेलियों पर
खूब प्रेम बरसा रहे रहे
नन्हें-मुन्ने बच्चों पर
इधर-उधर दौड़ते बच्चों को
थामे रहने के लिए
भागे जा रहे थे
कभी इधर तो कभी उधर।
गदगद थे पतिदेव भी
गर्वोन्नत सीना और
मस्तक ऊँचा किए
सस्मित आनन लिए
अचानक मिल गई
पत्नी की सहेलियों पर
प्रेम की कोमल पंखुड़ी
बिखेरते हुए
वे आ रहे थे
बेहद खुश-नजर
हो भी क्यों नहीं
शुरू हो चुका था
पति-पत्नी दोनों का
अलग-अलग पर
मजेदार ये सफर
मैं भी हो आया बुकफेयर।
महोदय
मैंने भी देखा लिया
एक ही दिन में
कई-कई फेयर
कर लिया मैंने
एक साथ
कई दुनिया का सफर
मैं भी हो आया बुक फेयर।

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